बौद्ध धर्म से प्रेरित लामा धर्म की नींव तिब्बत में भारत के एक बौद्ध शिक्षक गुरु पद्मसंभव ने 8वीं सदी में रखी थी और पहला बौद्ध विहार वहां 749 ई. में बनाया गया।

Sikkim Tourist Places लामा धर्म बाद में अनेक सम्प्रदायों में बंट गया, जिसका सबसे पुराना सम्प्रदाय काग्यूपा है। इसकी स्थापना भी तिब्बत में ही 12वीं सदी में हुई थी और सिक्किम में इसका पहला विहार 1730 ई. में रालौंग में बनाया गया।
बाद में सिक्किम के राजा ताशी नामदेव ने इस सम्प्रदाय को अपने राज्य की 'रुमटेक' नामक एक ऊंची पहाड़ी पर जगह दी। बौद्ध धर्म में निर्वाण के प्रतीक धर्मचक्र के नाम पर इस विहार का नाम पड़ा 'धर्मचक्र केंद्र'।
सिक्किम यानी अजदहे का राज्य, कंचनजंगा पर्वत की छोटी पहाड़ियों में बसा हुआ भारत का सबसे छोटा प्रदेश। कोमल रंग-बिरंगे ऑर्किड फूलों का प्रदेश, जहां 600 किस्म के ऑर्किड फूल खिलते हैं।
मंत्र और तंत्र की साधना करते लामा भिक्षुओं और बौद्ध अनुयायियों का प्रदेश, जहां घरों के छज्जों से शांत और मोहक पहाड़ों की चोटियां नजर आती हैं।
इतना रहस्य, रोमांच और आकर्षण भला किसे यहां आने का निमंत्रण नहीं देगा। अतः इस पहाड़ी प्रदेश के प्रतीक बर्फीले सिंह का तिलिस्म जानने के लिए हम रवाना हो ही गए सिक्किम के लिए। कोलकाता से रात भर की रेल यात्रा के बाद सुबह नई जलपाईगुड़ी हो कर सिलीगुड़ी पहुंचे और जरा देर बाद ही पश्चिम बंगाल और सिक्किम की सीमा आ गई।
सिक्किम के राजकुमार के राज्याभिषेक के समय खासतौर पर बनाया हुआ कोरोनेशन पुल पार करते ही तीस्था घाटी मिलती है, बदले हुए नजारों के साथ। बंगाल की सपाट धरती को छोड़कर टेढ़े-मेढ़े घुमावों वाले संकरे रास्ते पर चढ़ाई शुरू होती है और हम अपने सफर की साथी पाते हैं दूर नीचे पत्थरों और चट्टानों के बीच इतराती बलखाली तीस्था नदी को।
अक्तूबर महीने में अमूमन हर मोड़ पर कोई न कोई कलकल करता स्वच्छ झरना मिलता है और घाटी की ढलानों पर लहलहाती फसलें । इन्हीं ढलानों पर मिलते हैं खतरनाक ढंग से संतुलित नगीनों की तरह जुड़े हुए लाल-हरे रंगों की ढलवां छतों वाले मकान, जिनकी चिमनियों से धुआं निकलता ही रहता है।
इनसे भी ऊपर निर्मल आकाश से होड़ करते हवा में फहराते प्रार्थना ध्वज स्तम्भ । धीरे-धीरे ऊंचाई बढ़ती है और उसके साथ ही बढ़ती है ठंड और उतनी ही तेज हवा .
एक स्थान पर यह समुद्र तल से सिर्फ 800 फुट ऊंचा है तो इसकी एक पहाड़ी की चोटी 28,000 फुट ऊंची। रास्ते का पहला गांव है रंगपो और फिर दूसरा सिगताम। हर गांव जैसे एक ही हो। वही गोल गुंथने लाल चेहरे वाले बच्चे, वही परम्परागत वेशभूषा में शर्मीली पहाड़ियों सी शांत सुंदरियां और वही बड़े-बूढ़े 'सुमिरिनी' पर चुपचाप मंत्र बुदबुदाते हुए। आगे चलकर पैक्योंग है, जहां से एक सड़क सिक्किम की राजधानी गंगटोक को जाती है और दूसरी रुमटेक को। रुमटेक वाली सड़क पर आगे चलकर दोनों ओर नजर आती हैं प्रार्थना ध्वजाएं, जैसे पवित्र स्थान की घोषणा कर रही हों और इसकी पुष्टि करते हैं सड़क पर दोनों ओर इक्का-दुक्का निकलते लामा। लाल गेरुआ कत्थई लबादों में रबड़ के जूतों से लैस, घुटे हुए सिर वाले लामा इस क्षेत्र के रखवाले प्रतीत होते हैं। धीरे-धीरे ऊंची दिखने वाली पहाड़ी समतल होती जाती है और उन पर फैला हुआ मिलता है रुमटेक बौद्ध विहार।
बाहर लगे धर्मचक्रों की बौद्ध प्रार्थना' बोम माने पद्मे हुम' की गुंजार के साथ घुमाकर एक लामा भिक्षु बिहार की ड्योढ़ी पार करके अंदर प्रवेश करता है, हम उसके साथ हो लेते हैं।
ड्योढ़ी के बाद एक विशाल प्रांगण, जिसके बीचों-बीच एक खम्भे पर बौद्ध ग्रंथों के कुछ अंश उधृत हैं और उसके आगे आयताकार चौमंजिला इमारत है, इस विहार का प्रार्थनागार।
इस विहार की रचना तिब्बत के शुरुफू विहार की तरह है और यहां के मठाधीश कारमापा कहलाते हैं।
शुरुफू विहार 16वें करमापा रांगपुंग रिगपे दोरजे का निवास स्थान था, जो तिब्बत में चीनी गतिविधियों के कारण अपने धर्म प्रचार पर पड़ रहे प्रभाव से बचने के लिए अपना देश त्याग कर 1958 में अपने सहयोगियों और बहुमूल्य ग्रंथों के साथ भूटान के रास्ते भारत आ गए। सिक्किम के राजाओं के आग्रह पर उन्होंने रुमटेक में 1959 में धर्मचक्र केंद्र की स्थापना की।
दलाई लामा के बाद यहां के गुरु की प्रतिष्ठा सबसे अधिक है। इस लाल टोपी वाले लामा सम्प्रदाय का विश्वास है कि संबोद्धि अथवा ज्ञान प्राप्ति के क्षण ही पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है। इसके बाद भी वे प्रबुद्ध आत्माएं, जिन्होंने अपनी इच्छाओं पर काबू पा लिया है, धरती पर मानव कल्याण के लिए एक निश्चित अवधि तक अलग-अलग रूपों में शरीर धारण कर सकती हैं। महात्मा बुद्ध का संदेश 88 धर्मचक्र केंद्रों के माध्यम से विश्व में फैलाया जा रहा है।
गहरे कत्थई रंग के इस विहार पर सजावट, नक्काशी और चित्रकारी 16वीं शताब्दी के पारंपरिक तिब्बती विहारों के अनुरूप है। प्रार्थना केंद्र की पूरी इमारत सुनहरी पत्तियों और रंगीन पत्थरों से सज्जित है। प्रवेश द्वार के दोनों ओर बौद्ध धर्म के आठ शुभ चिन्ह और बुद्ध भगवान के जीवन की अनेक घटनाएं, अन्य तांत्रिक देवी- देवताओं, दिक्पालों, बर्फीले सिंह आदि आकृतियां चित्रित हैं। प्रवेश द्वार पर केंद्र का प्रतीक एक गोल धर्मचक्र टंगा है जो हर संकट में इस केंद्र के वासियों की रक्षा करता है। द्वार के आसपास जमीन पर बैठे लामा भिक्षु मक्खन से गुंथे चावल की मोमबत्तियां बनाने में जुटे थे, कुछ उन पर रंगीन पत्तियां चिपकाते जा रहे थे।
संयोगवश प्रार्थना का समय नजदीक था। प्रांगण में छोटे-छोटे लामाओं की, जिनकी उम्र 3 से 5 वर्ष या कुछ अधिक भी रही होगी, किलकारियां गूंज रही थीं।
कूदते भागते इन छोटे लामाओं से अपना लबादा भी संभाला नहीं जा रहा था, वे उलझ कर गिर पड़ते फिर संभलते, फिर गिरते थे, बिल्कुल आम बच्चों की तरह। मां-बाप खुशी-खुशी इन्हें यहां छोड़ जाते हैं। बड़े होने पर ये चाहें तो जा भी सकते हैं लेकिन अधिकतर लामा वापस नहीं लौटते।
उन्हें परिवार वालों से मिलने के लिए साल में एक बार घर जाने की अनुमति दी जाती है। दोपहर ठीक 12 बजे प्रार्थना कक्ष का दरवाजा खोल कर एक अधेड़ लामा धर्मभेरी बजाता है, उस आवाज पर छोटे-बड़े, अधेड़ सभी प्रार्थना कक्ष में पहुंच कर वरीयता के अनुसार आसन ग्रहण करते हैं।
दो भागों में विभक्त इस कक्ष में बैठने के लिए कालीनों की ऐसी कतारें हैं जिससे सभी लोग एक-दूसरे को आमने- सामने देख सकें।
इनके सामने लकड़ी की पीठिकाओं पर पूजा सामग्री और चाय के लिए बर्तन रखे हुए हैं। सामने दिवगंत मठाधीश की बड़ी सी तस्वीर के सामने सोने-चांदी के पात्रों में विभिन्न चढ़ावे, अगरबत्तियों, मक्खन और चावल की मोमबत्तियों की मिली-जुली गंध के बीच मंत्रोच्चारण शुरू होता है। उस दिन दिवंगत करमापा के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए 'गुरु योग ग्रंथ' से पाठ किया जा रहा था।
बीच-बीच में बड़े-बड़े झाल, डमरू, शंख, नगाड़े, बांसुरियों और दूसरे वाद्य यंत्रों को बजाकर अध्याय की समाप्ति की गई और फिर चाय बांटी गई।
तिब्बती कपड़ों पर की गई चित्रकारी, तंखा और रेशमी पर्दों से अटी हुई दीवारें मोमबत्ती की रोशनी में मायावी लगती हैं, जिसे यह संगीत और भी गहरा कर देता है। प्रार्थना सभाएं तीन समय- सुबह, दोपहर और शाम को होती हैं। प्रार्थना कक्ष के ऊपर पुरानी पांडुलिपियों, बहुमूल्य धातुओं और रत्नों की मूर्तियों, हथियारों, कीमती चित्रों व नक्काशीदार सुगंधित लकड़ी के असबाबों से भरा मठाधीश का कमरा है।
सिक्किम की सांस्कृतिक धरोहरों का अमूल्य कोष है यह विहार, जिसमें एक युवा भिक्षु विश्वविद्यालय और तिब्बती शोध केंद्र भी है।
शोध केंद्र की स्थापना 16वें करमापा द्वारा अपनी मृत्यु के कुछ पूर्व ही की गई थी। यहां बौद्ध धर्म से संबंधित सभी क्षेत्रों में शोध की व्यवस्था है।
भिक्षुओं और भिक्षुणियों के रहने के लिए अलग-अलग आवास हैं, जहां एक-दूसरे को जाने की अनुमति नहीं है। इनसे ऊपर दूर पहाड़ियों में स्थित है भिक्षुओं का साधना स्थल, जहां सिर्फ साधक ही जा सकते हैं। इससे कुछ पहले सुंदर फूलों और पौधों से सजा करमापा का निवास स्थान है, जहां कुछ सुंदर पक्षी भी रखे गए हैं।
प्रांगण के चारों ओर भिक्षुओं के आवास हैं। एक आम गलियारे से होकर कमरों तक का रास्ता खुलता है। हर कमरे में तिब्बती गलीचों से ढंके हुए दो बिछौने होते हैं और साथ में धर्मपत्रों और पूजा सामग्री से लदी एक वेदी, प्रार्थना ग्रंथ और दूसरी आवश्यकताओं के लिए दो मेजें।
मठाधीश का आतिथ्य हमें मिलता है, प्रांगण के कोने में बनी सामूहिक पाठशाला में। लकड़ी के नक्काशीदार प्यालों में जड़ी-बूटियों, मक्खन और नमक मिश्रित चाय, कुछ तिब्बती नाश्ते । सामने लकड़ी के कोयले से भरी एक सिगड़ी में समोवर जैसी पतीली में चाय हरदम तैयार ही रहती है ।
शाम ढलती है तो सिक्किम की चमकती रोशनी जुगनू की तरह लगती है। कहीं कोई आहट नहीं, कहीं शोरगुल नहीं, चप्पे-चप्पे में व्याप्त हो गया है मौन। सचमुच सिक्किम के पुराने निवासी लेपछा अब भी ठीक ही इसे नाई-मेई-एल कह कर पुकारते हैं जिसका अर्थ है स्वर्ग।
Thankyou