1857 की असफल क्रांति के बाद जब आजादी की लड़ाई लड़ने वाले नरम और गरम दल में बंट चुके थे, तब पंजाब के लाला लाजपत राय, महाराष्ट्र से बाल गंगाधर तिलक और बंगाल के बिपिनचंद्र पाल की तिकड़ी ने गरम विचार वालों का नेतृत्व कर बहुत प्रसिद्धी पाई और देशभर में लोकप्रिय हो गए।
अंग्रेजों की चूलें हिला देने वाली इस तिकड़ी के बिपिनचंद्र पाल को देश में क्रांतिकारी विचारों के जनक के तौर पर जाना जाता है। वह राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-साथ एक शिक्षक, समाज सुधारक, वक्ता, लेखक और पत्रकार के रूप में भी जाने जाते हैं।
उनका जन्म 7 नवम्बर, 1858 को तत्कालीन बंगाल के सिल्हेट जिले के पोइली गांव में हुआ था, जो आज बंगलादेश में है। इनके पिता रामचन्द्र पाल जमींदार होने के साथ-साथ फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे, जबकि माता नारायणी देवी धार्मिक विचारों की गृहणी थीं।
जितने स्पष्टवादी वह अपने सार्वजनिक जीवन में रहे, उतने ही स्पष्टवादी और क्रांतिकारी अपने निजी जीवन में भी रहे। अपनी पहली पत्नी की मौत के बाद उन्होंने सभी के विरोध के बावजूद एक विधवा से शादी की,. जो उस समय में बहुत ही बड़ी बात थी। बिपिनचन्द्र पाल ने लेखक और पत्रकार के रूप में बहुत समय तक कार्य किया।
1886 में कांग्रेस से जुड़े और 1887 में कांग्रेस के मद्रास सत्र में इन्होंने अंग्रेजी सरकार द्वारा लागू किए गए भेदभावपूर्ण 'शस्त्र अधिनियम' को तत्काल हटाने की मांग की।
जल्द ही इनकी दोस्ती लाला लाजपत राय और बाल गंगाधर तिलक. से हो गई। तीनों ने मिल कर क्रांतिकारी परिवर्तन के विरोध के उग्र स्वरूपों को अपनाया और जल्दी ही देश में 'लाल बाल पाल' के नाम से मशहूर हो गए।
इन तीनों ने क्रांतिकारी भावनाओं को हवा दी और खुद भी क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया। पूर्ण स्वराज, स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा देश के स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख हिस्से हो गए, जिसमें अरविंद घोष का भी नाम जुड़ गया था। इन्होंने स्वदेशी और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार जैसे उपायों के जरिए देश में गरीबी और बेरोजगारी को कम करने की वकालत की। इन्होंने रचनात्मक आलोचना के जरिए देश के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने पर भी जोर दिया।
बिपिनचन्द्र पाल एक कुशल वक्ता के साथ-साथ एक कुशल लेखक भी थे। उनकी वाणी और शब्दों में इतना जोश एवं उत्साह था कि वह आसानी से हजारों की भीड़ को अपना बना लेते थे।
'लाल-बाल-पाल' की तिकड़ी ने 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध आंदोलन किया, जिसे बड़े स्तर पर जनता का समर्थन मिला।
गरम विचारों के लिए प्रसिद्ध इन नेताओं ने अपनी बात तत्कालीन विदेशी शासक तक पहुंचाने के लिए कई ऐसे तरीके अपनाए, जो एकदम नए थे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान जागरूकता पैदा करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
इन्हें अंग्रेजों पर बिल्कुल भरोसा नहीं था। यह मानते थे कि निवेदन, तर्क, असहयोग जैसे तरीकों से अंग्रेजों को देश से नहीं भगाया जा सकता।
बिपिनचन्द्र पाल उग्रवादी राष्ट्रीयता के प्रबल पक्षधर थे। 1907 में जब अरविन्द पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया और इन्हें उनके विरुद्ध गवाही के लिए बुलाया गया, तो इन्होंने साफ इंकार कर दिया और इन्हें 6 मास का कारावास भोगने की सजा हुई।'
निर्भीकता इनके विचारों की शक्ति थी। वह कहते थे, "दासता मानवीय आत्मा के विरुद्ध है। ईश्वर ने सभी प्राणियों को स्वतन्त्र बनाया है।"
बिपिनचन्द्र पाल में दृढ़ता के साथ विरोध प्रदर्शन करने का सामर्थ्य था, इसलिए उन्होंने स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन की पहली वर्षगांठ पर 1906 में एक इंगलिश पत्र 'वन्दे मातरम्' लांच करने का साहसी कदम उठाया। 1907 में अंग्रेजों की दमनकारी नीति के बाद वह इंगलैंड चले गए।
वहां जाकर वह क्रान्तिकारी विधारधारा वाले 'इंडिया हाऊस' (जिसकी स्थापना श्यामजी कृष्ण वर्मा ने की थी) से जुड़ गए और 'स्वराज' पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया। जीवन भर राष्ट्र - हित के लिए काम करने वाले बिपिनचंद्र पाल 20 मई, 1932 को भारत मां के चरणों में अपना सर्वस्व त्याग कर परलोक सिधार गए।
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