'प्रभु भक्ति' का आनंद : बादशाह दाराशिकोह के यहां मुंशी वनवारीदास जी लिखा-पढ़ी का काम करते थे। वह बड़े ही ईमानदार और कार्य कुशल थे। एक बार उनके ऊपर आर्थिक संकट आ गया। तब उन्होंने बादशाह के नाम आर्थिक सहायता के लिए प्रार्थना-पत्र लिखा और उसे लेकर बादशाह के पास गए।
वह बादशाह के आगे अपना प्रार्थना-पत्र लिए करीब दो घंटे तक खड़े रहे, किंतु बादशाह दूसरे ही कामों में उलझा रहा। उन्होंने मुंशी की ओर देखा तक नहीं तथा आप यहां क्यों आए हो यह भी नहीं पूछा ? मुंशी जी के मन को बड़ा दुख पहुंचा।

उनके मन में आया कि यदि इतनी देर मैं ईश्वर के सामने प्रार्थना करता तो प्रभु मेरी प्रार्थना सुन लेते एवं मेरे सभी संकट दूर हो जाते। उन्होंने ठान लिया कि अब वह वहां से चले जाएंगे।
बादशाह को जब यह खबर लगी तो वह तुरंत उनके पास आए और बोले कि जितना तुम चाहते थे, उससे दोगुना मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम कहीं मत जाओ। पर मुंशी ने उनकी बात नहीं मानी । दिल्ली से निकलकर वह मेवाड़ की ओर चले गए और वहां एक पहाड़ पर रहकर ईश्वर भक्ति में लीन हो गए। एक वर्ष के बाद बादशाह अपनी सेना सहित उधर से निकले तो किसी ने उन्हें बताया कि इस पहाड़ी पर एक महान संत रहते हैं।
बादशाह उनके दर्शन करने पहुंचे। बादशाह ने उन्हें पहचान लिया एवं उन्हें प्रणाम करते हुए कहा, "आप शाही सुविधाएं छोड़कर यहां जंगल में अकेले रहते हैं। इसमें आपको क्या लाभ होता है?"
वनवारीदास ने कहा, "एक बार हम प्रार्थना-पत्र लेकर दो घंटे तक आपके सामने खड़े रहे, पर आपने हमारी ओर देखा तक नहीं, वहीं आज आप मेरे सामने खड़े हो और हमें आपकी कोई परवाह नहीं। यही प्रभु भक्ति की शक्ति है। आगे जो भी हो, वह तो ईश्वर के अधीन है।" यह सुनकर बादशाह उनके यह सुनकर बादशाह उनके सामने नतमस्तक बोले, "आप सच्चे संत हैं।"
--- Jyotishacharya Dhaniram, Panchkula, Haryana
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