वर्तमान समाज व मानवीय जीवनशैली में देखने में आ रहा है कि माता-पिता संतान के बगावती तेवरों से परेशान हैं। संतान मां-बाप के गैर-जरूरी अंकुश, अनुशासनिक बंधनों से पीड़ित हो विद्रोही भाषा का इस्तेमाल करती है। परिवार में छोटे-छोटे कारणों से बेवजह तनाव बना रहता है।
'बेटी के विवाह उपरांत उसके ससुराल पक्ष की शिकायतों के समाधान करते-करते, बेटे-बहू के अनैतिक व्यवहार को सहते-सहते माता-पिता प्रौढ़ता की दहलीज पार कर वृद्धावस्था में प्रवेश कर अपनी जिंदगी से उदासीन हो अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
सामने ही अपनी संतान के जायदादी झगड़े अलग परेशान करते हैं। घर में कलह का माहौल बना रहता है। यह आज की जीवनशैली की देन है। सभी अपनी गलती न मान कर सदैव एक-दूसरे पर दोषारोपण कर भगवान द्वारा बख्शी श्रेष्ठ इंसानी जिंदगी को नरक तुल्य बनाकर संताप झेलते हैं, जो निःसंदेह गहन चिता का विषय है।
व्यर्थ के मोह से तो पशु-पक्षी तक भी दुखी नहीं होते, इंसान यह कला उनसे सीखे। वे भी संतान का कुछ देर पोषण कर उन्हें स्वच्छंद जीवन जीने की, उड़ान भरने की आजादी देकर अकेला छोड़ देते हैं।
कितना सुखदायी और शांतमयी होता था इस भारत का बुढ़ापा, जब बुजुर्ग परिवार के हर सदस्य से सम्मान पाता था, पर समय की गति को कौन पकड़ सका है।
यही वजह है कि सारे जीवन की कमाई लेकर भी आज बच्चे अपने बुजुर्ग माता-पिता को वृद्धाश्रम की राह दिखाते हैं। नींव के इस पत्थर को ही घर का कचरा समझकर वृद्धाश्रम में भेज देते हैं।
बुढ़ापा कब आपसे आपका कीमती समय मांगता है, बुढ़ापा तो बस आपकी एक हल्की-सी मुस्कान चाहता है लेकिन शायद आप यह नहीं जानते कि जो कार्य आपके लिए असंभव हो जाता है, उसको हमारे बुजुर्ग चुटकियों में संभव कर देते हैं क्योंकि वे अनुभव के खजाने के मालिक हैं। घर में एक बुजुर्ग सौ अध्यापकों के बराबर है।
आप भूल जाते हैं कि एक दिन आपको भी इस प्रक्रिया से गुजरना होगा, तब आपकी औलादें भी ऐसा ही करेंगी। जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे, यही तो होगा, इसलिए मेरा मानना है कि बुजुर्गों का सम्मान करें और अपने बच्चों को सम्मान करना सिखाएं।
मेरा अनुभव कहता है कि जिस घर में दादा-दादी हैं, उनके बच्चों का हौसला देखिए और जिनके नहीं हैं, उनका देखिए। मेरे हिसाब से दिन-रात का अंतर मालूम होगा।
मैंने अनुभव किया, सन् 1995 में मेरे पिता जी की उम्र 90 साल थी, जो चल-फिर नहीं सकते थे। फिर भी अगर मुझे कहीं बाहर घूमने जाना होता, तो पीछे मुड़कर यह नहीं देखना पड़ता था कि घर में कोई नहीं है। बिल्कुल बेफिक्र होकर कहते थे कि पिता जी हैं, हमें कोई चिंता नहीं। अब घर के उन महान स्तम्भको हम खुशियां न दें तो हमारा पूजा-पाठ किया बेकार जाएगा।
आगे पढ़िए : आशीर्वाद' देने वाले हाथ आत्मनिर्भर क्यों नहीं
Thankyou