शाकाहार और अहिंसा को संसार के समस्त धर्मों का समर्थन प्राप्त है और आज चिकित्सकों की राय में भी शाकाहार ही सर्वश्रेष्ठ आहार है। शाकाहार हमारे अंत: करण को सात्विक बनाता है। बुद्धि प्रखर होती है और हम आजीवन निरोग बने रहते हैं।

मांसाहारी मनुष्य के अनुसार कि मांस खाने से शरीर में अनाज , फल-फूल, दूध, दही के मुकाबले अधिक शक्ति आती है। जबकि यह एक भ्रम है वैज्ञानिक दृष्टि से जांच करने पर पता चला है कि शाकाहारी व्यक्ति मांसाहारियों से अधिक स्वस्थ और बलिष्ठ होते हैं।
वैज्ञानिक विश्लेषणों के अनुसार मांस में सूखे चने, मटर, चावल, गेहूं, जौ, घी, मलाई, बादाम, किशमिश आदि से कम शरीर पोषक शक्ति के अंश होते हैं । अतः साधारण व्यक्ति भी चना, मटर, चावल खाकर मांसभक्षी के मुकाबले अधिक बलवान बन सकता है।
घास-पत्ती खाने वाले गाय, बैल, हाथी आदि के मुकाबले मांसाहारी सिंह में बल अधिक नहीं होता। उसमें क्रूरता और चपलता अधिक होती है। इसी कारण स्फूर्ति से झपटकर वह दूसरे पशुओं को मार डालता है। भारी बोझ उठाना, भारी बोझ खींचना आदि बल परीक्षण के कार्यों में सिंह, बैल, घोड़ा, भैंस आदि की बराबरी नहीं कर सकता ।
कभी हाथी की पकड़ में जब सिंह आ जाता है तब हाथी उसे अपने एक पैर से कुचलकर या सूंड में पकड़कर जमीन पर पटक देता है और क्षणभर में मार डालता है। द्वंद्वयुद्ध में जंगली सूअर भी सिंह को पीछे हटा देता है। इसलिए मांस खाने से अधिक बलवान होने की वाली मान्यता गलत है
कुछ व्यक्तियों का कहना है कि 'अहिंसा का आचरण करने से मनुष्य का हृदय कोमल हो जाता है। अतः वह देश, जाति, धर्म, आदि की रक्षा करने के लिए वीर योद्धा नहीं बन सकता। जैनियों के अहिंसा प्रचार के कारण भारत देश अपनी स्वतंत्रता खोकर लगभग आठ सौ वर्षों तक परतंत्र बना रहा । ' उन लोगों की यह मान्यता गलत है। अहिंसा, मनुष्य को हीन, दीन, निर्बल प्राणी के लिए दयालु तो अवश्य बनाती है, किन्तु कायर बिलकुल नहीं। गृहस्थ का अहिसा व्रत अन्यायी, अत्याचारी, आक्रांत के साथ युद्ध करने से नहीं रोकता। स्वरक्षा, स्वदेश, स्वधर्म, दीन निर्बल की रक्षा के लिए अहिंसाव्रती गृहस्थ को यदि युद्ध करना पड़े तो वह युद्ध भी करता है।
इसलिए यह कहना कि शाकाहार या अहिंसा भाव के कारण मनुष्य दुर्बल या साहसहीन हो जाता है, ठीक नहीं है। भारत की संस्कृति अहिंसा की रही है। वास्तव में दुनिया का कोई भी धर्म हिंसा नहीं सिखाता। जो लोग धर्म के नाम पर हिंसा फैलाते हैं वे या तो धर्म को समझते नहीं या धर्म की व्याख्या अपने अनुकूल कर देते हैं । किसी भी धर्म की मूल आत्मा अहिंसक ही है।
धर्म अहिसा रूप ही हो सकता है, हिंसा रूप नहीं इसीलिए जो भी शाकाहार को अपनाएगा और अहिंसा के मार्ग पर चलेगा, वही धर्म के करीब भी हो सकता है और उसे ही धार्मिक भी माना जा सकता है।
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