वैसे तो भारत में अनेक अद्भुत मंदिर हैं, जो शिल्प एवं वास्तुकला के आश्चर्यजनक उदाहरण हैं और हर एक की छवि मनमोहक एवं निराली है परंतु फिर भी उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का टपकेश्वर मंदिर स्वयं में एक ऐसा शांत स्थान है, जिसे देख कर कोई भी व्यक्ति यह कहे बिना रह नहीं सकता कि इसे तो जैसे स्वयं विश्वकर्मा जी ने बनाया होगा। यह चमत्कारी मंदिर किसी नींव पर नहीं बना।
ऐतिहासिक टपकेश्वर महादेव मंदिर देहरादून शहर से लगभग 6 किलोमीटर दूर गढ़ी कैंट में स्थित है। मंदिर पहुंचने के लिए ढलान में जाती लगभग 100-125 सीढ़ियां नीचे उतरना पड़ता है, तब जाकर मंदिर का द्वार नजर आता है। यहां पहुंचने पर दाईं ओर देखते हैं कि एक छोटी नदी बह रही है। जैसे ही मंदिर में प्रवेश किया तो पाया कि पथरीली चट्टानों को काट कर मंदिर बनाया गया है। यहां कोई मनुष्य निर्मित दीवार नहीं, छत नहीं अपितु चट्टानों को इतनी कारीगरी से काटा गया है कि मनुष्य के खड़े होने लायक ऊंचाई ही मिलती है ।
पथरीली चट्टानों को काट कर बनाया गया अनोखा मंदिर 'टपकेश्वर'
यहां का दूसरा अद्भुत दृश्य यह है कि पथरीली पहाड़ी की इन चट्टानों के अंदर से पानी खूब टपकता रहता है और यह सिलसिला अति प्राचीन समय में निर्मित इस मंदिर में चला आ रहा है। हजारों वर्ष पूर्व पत्थर काट कर बनाई
गई छत से निरंतर टपकते हुए पानी को देख कर मनुष्य सोचता है कि यदि किसी अन्य ढांचे से पानी का टपकना-रिसना थोड़ी देर जारी रहे तो वह कुछ समय बाद अपने आप धराशाई हो जाता है और यह मंदिर है कि पहले की तरह ज्यों का त्यों खड़ा है।
महाभारत काल से जुड़ा जल का रहस्य पौराणिक मान्यता के अनुसार आदिकाल
पौराणिक मान्यता के अनुसार आदिकाल में भोले शंकर ने यहां देवेश्वर के रूप में दर्शन दिए थे। यह भोलेनाथ को समर्पित गुफा मंदिर है। इसका मुख्य गर्भगृह एक गुफा के अंदर है। इस गुफा में शिवलिंग पर पानी की बूंदें लगातार गिरती रहती हैं। इसी कारण शिवजी के इस मंदिर का नाम टपकेश्वर पड़ा।
मान्यता है कि इस गुफा में द्रोणाचार्य भगवान शिव की तपस्या करने के लिए आए थे। 12 साल तक उन्होंने भोलेनाथ व की तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दर्शन दिए। उनके अनुरोध पर ही भगवान शिव यहां लिंग के रूप में स्थापित हो गए।
लोक मान्यता के अनुसार पांडवों कौरवों - के गुरु द्रोणाचार्य को भगवान शिव ने इसी जगह पर अस्त्र-शस्त्र और धनुर्विद्या का ज्ञान दिया था।
इसी गुफा में उनके बेटे अश्वत्थामा पैदा हुए थे। बेटे के जन्म के बाद उनकी पत्नी अपने बेटे को दूध नहीं पिला पा रही थी। गुरु द्रोणाचार्य ने भोलेनाथ से प्रार्थना की जिसके बाद भगवान शिव ने गुफा की छत पर गऊ थन बना दिए और दूध की धारा शिवलिंग पर बहने लगी जिसकी वजह से प्रभु शिव का नाम दूधेश्वर पड़ा।
दो शिवलिंग
कलियुग के समय इस धारा ने पानी का रूप ले लिया। इस कारण इस मंदिर को टपकेश्वर कहा जाने लगा। यहां दो शिवलिंग हैं। ये दोनों गुफा के अंदर स्वयं प्रकट हुए थे। शिवलिंग को ढकने के लिए रुद्राक्ष का उपयोग किया गया है। मंदिर के निकट ही मां संतोषी की गुफा भी है। मंदिर परिसर के आसपास कई खूबसूरत झरने हैं।
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