हींग एक ऐसा मसाला है, जो प्रायः सभी रसोईघरों की शान है। 'भावप्रकाश' ग्रंथ में इसे कृमिघ्न (कीटाणुनाशक), 'चरक संहिता' में रत्नाकर (अर्थात पेट के रोगाणुओं का नाशक) कहा गया है। यूनानी, आयुर्वेदिक एवं होम्योपैथी, सभी में हींग को वातनाशक माना गया है ।

हींग का वैज्ञानिक नाम 'फेरूला ऐसाफोइटिडा' है। फेरूला ऐसाफोइटिडा एक लिंगी, बहुवर्षीय झाड़ी है जो एपिएसी कुल की पादप है। आमतौर पर एक पौधे से 250 से 300 ग्राम हींग मिल जाती है। काबुली या खुरासानी हींग उत्तम मानी गई है। यह अफगानिस्तान से आती है।
शुद्ध हींग की पहचान :
1. पानी में डालने पर सम्पूर्ण हींग घुल जाती है व पानी की रंगत दूधिया हो जाती है। तब उसे दूसरे पात्र में डाल देते हैं। यदि पेंदे पर रेत-मिट्टी है तो हींग मिलावटी है अन्यथा शुद्ध है।
2. दियासिलाई से जलाने पर पूर्ण रूप से हींग जल जाए तो असली अन्यथा अशुद्ध है।
3. शुद्ध हींग सामान्यतः दानेदार होती है। ढेले या रॉल के रूप में नकली होती है।
उपयोग :
इसका इस्तेमाल खाद्य पदार्थों में पाचक के रूप में छौंक लगाकर या अचार में भी किया जाता है। शुद्ध हींग की गंध इतनी तेज होती है कि खुले में रखने पर यह अन्य मसालों में अपना प्रभाव डाल देती है। प्याज, लहसुन आदि न खाने वाले, विशेषतः जैन धर्म के लोग इसका छौंक के रूप में इस्तेमाल करते हैं।
यह राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र में बहुतायत से प्रयुक्त होती है। इसका इस्तेमाल गले में सूक्ष्मजीवों की वृद्धि रोकने में, पाचक के रूप में तथा अन्य रोगों में औषधि के रूप में भी किया जाता है। इसकी जड़ों में एंटीवायरल गुण होने के कारण यह इन्फ्लूएंजा में प्रयुक्त की जाती है। यह अस्थमा एवं ब्रोंकाइटिस में भी औषधि के रूप में उपयोगी है। आयुर्वेद में वात एवं कफ में इसको उपयोगी माना गया है। बच्चों एवं गर्भवती महिलाओं को इसका सेवन नहीं करना चाहिए।
कान दर्द, कूकर खांसी व खट्टे डकार में हींग उपयोगी है। यह पाचन में सहायक एवं मूत्रासन के रोगों, पित्त के रोगों में भी उपयोगी है परन्तु इसका सेवन लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। हींग फेफड़ों के दर्द, कब्ज व नजला-जुकाम जैसे कई रोगों में उपयोगी है। फेफड़े के रोगों में इसे सर्वसुलभ एवं रामबाण औषधि माना गया है। हींग में एक उड़नशील तेल होता है जो श्वासनालिका को निर्मल करता है।
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