
इसी भावना से जुड़ा पर्व है गोवत्स द्वादशी, जिसे वसुबारस भी कहा जाता है। यह पर्व धनतेरस से एक दिन पहले, कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को मनाया जाता है।
इस दिन गाय और बछड़े की पूजा की जाती है। 'गो' का अर्थ है गाय और 'वत्स' का अर्थ है बछड़ा। इस दिन उन्हें स्नान कराकर, सजाकर और विशेष मंत्रों से पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की जाती है। गाय को धर्म, सेवा और जीवन का आधार माना गया है।
पौराणिक मान्यता
विष्णु धर्मोत्तर और स्कंद पुराण के अनुसार, देवताओं और दानवों के युद्ध में धर्म की रक्षा हेतु भगवान विष्णु ने गौ का सृजन किया। उसी गौ से पंचगव्य-1. गोदुग्ध (दूध), 2. गोघृत (घी), 3. गोमूत्र, 4. गोदघी (दही), 5. गोमेह (गोबर) उत्पन्न हुआ, जो यज्ञ और धार्मिक कर्मों में उपयोगी है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गोवर्धन पूजा से पूर्व गाय-बछड़ों का पूजन कर इस परम्परा की नींव रखी।
धार्मिक महत्व
गरुण, पद्म और ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस व्रत का महत्व बताया गया है। मान्यता है कि गायों में सभी देवताओं का वास होता है- 'गावः सर्वदेवमयी'। अतः गौसेवा करना समस्त देवताओं की सेवा के समान है। इस दिन पूजा करने से पापों से मुक्ति, संतान सुख और धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
पूजा विधि और व्रत
सुबह स्नान कर गाय और बछड़े को स्नान कराएं, उनके सींगों पर हल्दी-सिंदूर लगाएं, माला पहनाएं और धूप-दीप से पूजा करें। पूजन सामग्री में हरी घास, गुड़-चना, दूध, खीर आदि रखें। मंत्र उच्चारण करें :
नमो गौमाता नमः, नमो दुग्धधारिणी नमः । महिलाएं विशेष रूप से संतान सुख और परिवार की समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं और फलाहार करती हैं।
लक्ष्मी आगमन का संकेत
गोवत्स द्वादशी को लक्ष्मी आगमन दिवस भी कहते हैं। माना जाता है कि जहां गाय की सेवा होती है, वहां लक्ष्मी जी स्वयं निवास करती हैं इसलिए यह पर्व धार्मिक, सामाजिक और पर्यावरणीय चेतना का सांदेश देता है।
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