
श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कर्म किया जाए। श्राद्ध पितृ पक्ष में मुख्य तिथियों को ही किया जाता है किंतु तर्पण प्रतिदिन किया जाता है। देवताओं तथा ऋषियों को जल देने के पश्चात पितरों को जल देकर तृप्त किया जाता है।
पौराणिक धर्म ग्रंथों के अनुसार सनातन धर्म में ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ, अतिथि यज्ञ इन पांच यज्ञों को विशेष रूप से करने का विधान है। वेद में भी कहा गया है कि मनुष्य इन पांचों यज्ञों को यथाशक्ति कभी भी न त्यागे।
तीन ऋणों की चादर
मनुष्य जन्म लेने के साथ ही तीन ऋणों की चादर से लिपटे रहता है- देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण। इनमें से पितृ ऋण को प्रमुख माना गया है, जिसे पितृ यज्ञ के नाम से भी जाना जाता है अर्थात अपने पितरों को अन्न, जल, धन, वस्त्र आदि के दान के माध्यम से संतुष्ट करना। अपने कुल के पूर्वजों एवं पितरों के प्रति श्रद्धा भाव एवं कृतज्ञता के साथ उनको हवि (आहुति) प्रदान करना।
हमारी सनातन संस्कृति की यह प्रमुख विशेषता है, जिसे पितृ ऋण के माध्यम से समझाते हुए कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य पर पितरों का ऋण सदैव रहता है। वर्तमान का हमारा जो अस्तित्व है, वह हमारे पूर्वजों एवं पितरों की ही देन है। उन्होंने अपने पुरुषार्थ, श्रेष्ठ गुणों, कर्म एवं स्वभाव एवं संस्कारों की संपत्ति से हमारे कुल को सुशोभित किया है।
अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति, उनके महान कार्यों के प्रति सदैव नतमस्तक होना तथा श्रद्धा भक्ति के साथ उनका स्मरण करना इस पितृ पक्ष एवं श्राद्ध कर्म के मुख्य उद्देश्य हैं। हमारे सनातन धर्म में जो यज्ञोपवीत धारण करने की स्वर्णिम परंपरा है, वह भी इस पितृ ऋण की ही प्रतीक है।
हमारे ऋषियों ने मानव जीवन का बड़ा गहन अध्ययन किया था। अपने गहन विश्लेषण एवं अध्ययन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मृत्यु के बाद शरीर के साथ आत्मा समाप्त नहीं होती। जब जीवात्मा अपना एक जीवन पूरा करके दूसरे जीवन की ओर उन्मुख होती है, तब जीव की उस स्थिति को भी एक विशेष संस्कार के माध्यम से बांधा गया है, जिसे मरणोत्तर संस्कार या श्राद्ध कर्म कहा जाता है। जिस भी तिथि को हमारे किसी पितर का देहावसान हुआ था, उसी तिथि के दिन उसको श्रद्धा भक्ति-भाव के साथ श्राद्ध कर्म के माध्यम से तृप्त करना अनिवार्य माना गया।
मनुस्मृति में मनु महाराज ने कहा है कि- 'अर्चयंतु पितृन् श्राद्धैः 'अर्थात इस पावन पितृ पक्ष के दिनों में श्राद्ध कर्म के माध्यम से अपने पितरों और पूर्वजों की अर्चना करो। अन्न, जल, धन, वस्त्र दान के माध्यम से उन्हें सदैव सत्कृत करो।
यजुर्वेद में कहा गया है कि जिन पितरों अर्थात पूर्वजों को हम जानते हैं या जिन्हें हम नहीं जानते, उन सभी को प्रिय वस्तुओं के माध्यम से सत्कृत करना चाहिए। इसलिए हमारी सनातन पद्धति में कहा गया है कि जिस भी पितर की हमें देहावसान तिथि निश्चित रूप से पता नहीं है तो उसका भी अमावस्या के दिन श्राद्ध कर्म करना चाहिए।
अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि एवं शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनंत यात्रा के लिए पूर्ण श्रद्धा से अर्पित प्रार्थना, प्रयास को ही श्राद्ध कहा जाता है। श्राद्ध अपने अस्तित्व से, अपने मूल से जुड़ने, उसे पहचानने और सम्मान देने की सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा है।
आश्विन मास पितरों के प्रति समर्पण, श्रद्धा सुमन अर्पित करने का समय है। पूरे वर्ष में एक यही समय है जब पूर्वज पितृ लोक से उतरकर धरती पर आते हैं। इसे महालया कहा जाता है। महालया श्राद्ध पक्ष में मान्यता है कि पूर्वज धरा पर सूक्ष्म रूप में निवास करते हैं।
भाद्र मास की पूर्णिमा से पितृ पक्ष शुरू होता है जो आश्विन मास की अमावस्या तक चलता है। इस अवधि में सोलह श्राद्ध होते हैं जिसे महालया श्राद्ध के नाम से भी जाना जाता है। इसमें पूर्वजों की मृत्यु तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में क्या नहीं करना चाहिए?
श्राद्ध का वैज्ञानिक आधार
सनातन पद्धति की प्रत्येक धार्मिक क्रिया में कहीं न कहीं वैज्ञानिकता का पुट अवश्य होता है। इस पितृ पक्ष में ब्रह्मांड की ऊर्जा तथा उसके साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहते हैं। इन दिनों अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्राह्यंडीय ऊर्जा के साथ वापस चले जाते हैं।
ज्योतिष विद्या के ग्रंथों में भी कहा गया है कि पितृपक्ष के दौरान पृथ्वी सूर्य मंडल के निकट रहती है। इन दिनों श्राद्धकर्ताओं द्वारा किए गए सभी तर्पण सर्वप्रथम सूर्य मंडल तक पहुंचते हैं। श्राद्ध में तर्पण के अंतर्गत अलग-अलग दिशाओं की तरफ मुख करके विभिन्न मुद्राओं द्वारा जल की अंजली श्रद्धा एवं भक्ति भाव के साथ समर्पित की जाती है। मनुष्य की उंगलियों में विशेष प्रकार की जैव विद्युत निकलती है। इसके साथ तर्पण करने वाले यजमान की जब प्रगाढ़ श्रद्धा की भाव तरंगें जुड़ जाती हैं तो वे और अधिक शक्तिशाली भाव तरंगे पितरों के लिए तृप्तिकारक और आनंददायक होती हैं।
श्राद्ध के समय शारीरिक शुद्धि के साथ मानसिक शुद्धि भी अनिवार्य है। हमारे समाज में यह परम्परा है कि श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को भोजन खिलाने के पश्चात ही परिवार के सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं। उससे पहले एक तरह सभी उपवास का पालन करते हैं। हमारे ऋषि इस विषय में कहते हैं कि इससे शरीर की पाचन शक्ति मजबूत होती है तथा शरीर में प्राण शक्ति का संचार सुचारू रूप से होता है।
इस प्रकार इस विधि से किया गया श्राद्ध कर्म यजमान को आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करता है जिसके फलस्वरूप जो भी क्रिया वह करता है, वह विशुद्ध रूप से पितरों को प्राप्त होती है।
सात्विक दान की बड़ी महिमा
इस अवसर पर पितरों के निमित्त दिए जाने वाले सात्विक दान की भी बहुत बड़ी महिमा है। श्राद्ध के निमित पितरों हेतु सुपात्र को ही दान देना चाहिए, वही पितरों को प्राप्त होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि पितरों के नाम से सुपात्र को दिए गए दान को मैं स्वयं लेकर पितृलोक तक पहुंचाता हूं। हमारे विषयों की प्रत्येक धर्म क्रिया की यह सर्वोपरि विशेषता है कि उसमें प्रत्येक प्राणी मात्र का कल्याण निहित रहता है।
श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को भोजन कराने के साथ-साथ गाय को भी ग्रास देने का विधान है। हमारे ग्रंथों के अनुसार गाय में समस्त देवताओं का निवास माना जाता है, इसलिए ऋषियों ने यहां गाय की सेवा का संदेश भी दिया है।
कौओं के लिए भोजन देने का महत्व
श्राद्ध के अवसर पर कौओं के लिए भोजन देना पक्षी जगत के प्रति हमारे दायित्व को दर्शाता है। समाज के लोगों की आज भी यह धारणा है कि पितृपक्ष सिर्फ मरे हुए लोगों का काल है, यह धारणा सही नहीं है। यह समय पितरों के प्रति अपने दायित्व को समझने का एवं अपनी मूल विरासत से जुड़ने का अवसर है।
मांगलिक कार्यों पर रोक का उद्देश्य
हमारे ऋषियों का पितृपक्ष में 15 दिन के लिए मांगलिक कार्यों में रोक लगाने के पीछे का उद्देश्य था कि यदि हम इन दिनों में अन्य मांगलिक कार्यों में उलझ जाएंगे तो पितरों के स्वागत हेतु आंतरिक आध्यात्मिक ऊर्जा एवं श्रद्धा का संचार कैसे करेंगे, इसलिए पितृपक्ष को ऋषियों ने केवल मात्र अपने पूर्वजों को समर्पित किया है।
पितरों का संतुष्ट होना एवं उनको सद्गति प्राप्त होना बहुत अनिवार्य है। अगर इस पितृ पक्ष में हम श्रद्धा और आस्था के साथ अपने पितरों को हवि प्रदान नहीं करते तो निश्चित रूप से हमारा वर्तमान जीवन पूर्ण रूप से आनंदित नहीं हो सकता।
परिवार में अशांति, वंश वृद्धि में रुकावट, आकस्मिक बीमारी, धन में बरकत न होना, सारी सुख-सुविधाएं होते हुए मन का असंतुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। हमारे पितर हमसे प्रसन्न रहें, उनकी कृपा दृष्टि एवं उनका आशीर्वाद सदैव हम पर बना रहे, इसके लिए इस श्राद्ध पक्ष के महत्व को समझना बहुत आवश्यक है।
पितरों के ऋण से उऋण होने की यही स्वर्णिम बेला है। अज्ञानवश किए गए पितरों के अनादर का यह पश्चाताप करने का समय है। इन दिनों हमारे पितर भी पूरी आशा के साथ हमारी श्रद्धा रूपी हवि की प्रतीक्षा करते हैं।
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