एक विचारक थे। वह शुरूआत से ही नास्तिक थे। न ईश्वर को मानते और न ही आत्मा को सिर्फ वर्तमान क्षण में विश्वास रखते थे। अपने शिष्यों के साथ वह नगर से बाहर एक बगिया में रहते थे।
एक दिन उस नगर के सम्राट की इच्छा हुई कि इस विचारक से मिला जाए। वह उनकी बगिया में पहुंचे। उन्होंने देखा कि वातावरण बेहद शांत है। सब अपने-अपने काम में लगे हुए हैं। सभी खुश और आनंदित हैं लेकिन वहां भौतिक सुविधाओं का अभाव है। न ही बैठने की जगह है, न सिर ढकने के पर्याप्त साधन। फिर भी संत आनंदित थे। यह देख सम्राट हैरान हुए और प्रभावित भी।
उन्होंने कुछ विचार करने के बाद संत से कहा, "मैं आपको कुछ वस्तु भेंट करना चाहता हता हूं। बताइए क्या चीज आप लोगों के लिए भेजूं? जिस चीज की भी आपको जरूरत हो, वह मैं भिजवा देता हूं।"
यह सुनते ही विचारक के माथे पर बल पड़ गए। उन्होंने मानो दुखी होकर कहा, "आपने तो हमें चिता में डाल दिया। हम भविष्य का तो कोई विचार करते ही नहीं। अभी अपने पास जो है, उसी का आनंद लेते हैं। जो नहीं है, वह आ जाए तो भला हो जाए, इस तरह सोचते ही नहीं। अब आपने तो हमें दुविधा में डाल दिया है। विचार करना पड़ेगा, सोचना होगा कि आपसे क्या मांगें ? फिर बोले हां एक रास्ता है, आज ही हमारी इस बगिया में एक नया साधक आया है। वह अभी यहां के वातावरण में घुल-मिल नहीं पाया है, उससे पूछ लेते हैं। शायद उसे किसी चीज की जरूरत हो।"
शिष्य से पूछा गया तो वह थोड़ी देर सोचता रहा फिर बोला, "कुछ भी भेंट करना चाहते हैं तो थोड़ा मक्खन भैर कर दें। यहां पर रोटियां बिना मक्खन की बनती हैं।"
सम्राट खुद मक्खन लेकर आए। उन्होंने दखा कि उनका वहां ऐसा स्वागत हुआ, मानो स्वर्ग धरती पर उतर आया हो।
भक्खन खा कर सभी नाचे और आनंदित हुए। सम्राट को यह एहसास हुआ कि मेरे पास इतना सब कुछ है। फिर भी मैं आनंद नहीं मानता। शायद मैंने संतुष्ट होना सीखा ही नहीं। सच बात है कि आदमी को हर स्थिति में आनंद मनाना चाहिए।
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