इस भूमि पर अगर ईश्वर की कोई भी कल्याणकारी भूमिका है तो वह केवल माता-पिप्ता के रूप में है। माता-पिता द्वारा जन्म प्राप्त करने को यदि केवल मात्र एक प्राकृतिक और अचेतन घटना भी मान लिया जाए तो भी जन्म के बाद माता-पिता द्वारा पूरी चेतनापूर्वक बच्चों के लिए जो कृपा और प्रेम बरसता है, उससे तो कोई भी मनुष्य इंकार नहीं कर सकता।
इसका मनोवैज्ञानिक कारण भी है। बच्चे विद्यालय, महाविद्यालय में और उसके बाद कार्य स्थलों में जब नए-नए साथी ढूंढते हैं और बाद में जब वे भौतिक सुखों के संबंध में भी अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो वे स्वयं को स्वतंत्र और स्वयंभू मानने लगते हैं।
माता-पिता के सभी कष्टों और कृपाओं को भूल कर वे अपना ही एक मनोविज्ञान विकसित कर लेते हैं कि मैं स्वयं पढ़-लिख कर और मेहनत करके कितना योग्य बन चुका हूं। इस प्रकार शुरू होती है एक राजसिक अहंकार की यात्रा परंतु यह राजसिकता कभी-कभी तामसिकता में भी बदल जाती है, जब बच्चे माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल कर उन्हें प्रताड़ित करने का दुस्साहस भी करने में संकोच नहीं करते।
कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक ऐसे ही तामसिक पुत्र का किस्सा समाचार पत्रों में देखने को मिला। बेटा पढ़-लिखकर अमरीका में नौकरी करने लगा था, जबकि उसका पालन-पोषण करके शिक्षा देने वाली अकेली मां दिल्ली में रहने को मजबूर थी। एक दिन पुत्र ने मां को कहा कि दिल्ली वाला मकान बेच कर आपको मैं अपने साथ अमरीका ही ले चलता हूँ। सहज कल्पना की जा सकती है कि मां के मन में कितना प्रेम और आशाएं. • हिलोरे मार रही होंगी।
बेटा दिल्ली आया, कुछ दिन ठहर कर दिल्ली वाला मकान बेचा और मां को लेकर चल दिया, दिल्ली एयरपोर्ट की तरफ। एयरपोर्ट पहुंच कर मां को बाहर एक बैंच पर बिठाते हुए कहा कि मैं अंदर से टिकट खरीदकर लाता हूं। अब आप समझ सकते हैं कि उसने क्या किया होगा। कई घंटों की प्रतीक्षा के बाद एयरपोर्ट के सुरक्षा कर्मियों से संपर्क करने पर मां को बताया गया कि उसका पुत्र स्वयं अमरीका चला गया और मां को पूरी बेशर्मी के साथ बेघर और बेसहारा छोड़ गया और मां पड़ोसियों की मदद लेकर किसी की सेवा करके अपने रहने और जीने का सहारा ढूंढने के लिए मजबूर हो गई।
सामान्यतः देखा जाता है कि माता-पिता का सम्मान तभी तक होता है जब तक सम्पत्ति उनके नाम चलती रहती है इसलिए मेरा यह प्रबल परामर्श कानूनी प्रावधानों के साथ-साथ सामाजिक और पारिवारिक सुरक्षा की दृष्टि से भी हर माता-पिता के लिए है कि अपने जीते जी पारिवारिक सम्पत्तियों को बच्चों के नाम न करें।
बैंकों में जमा राशियां या गहने इत्यादि भी लॉकरों में सुरक्षित रखें। सभी सम्पत्तियों की वसीयत बेशक कर दें, जिससे माता-पिता की मृत्यु के बाद ही ये सम्पत्तियां बच्चों को प्राप्त हों। इससे माता-पिता से कुछ प्राप्त करने का लालच कम से कम बच्चों को सेवा के लिए तो मजबूर करता ही रहेगा।
आजकल के बच्चे धार्मिक स्थलों पर जाकर ईश्वर भक्ति करते हैं, परंतु वास्तविक ईश्वर भक्ति तो माता-पिता की सेवा के माध्यम से ही प्राप्त होगी क्योंकि सारी ईश्वरीय कृपाएं उन्हें माता-पिता के माध्यम से ही प्राप्त हुई हैं।
सभी स्कूलों और कालेजों में भी ऐसे विचार बच्चों को निरंतर प्रेरणा की तरह दिए जाने चाहिएं, इसका अवश्य हीं घर-घर में अच्छा प्रभाव पड़ेगा।
कुछ वर्ष पूर्व मैंने पंजाब के कुछ घरों में भी ऐसी ही तामसिक घटनाएं देखीं तो स्वाभाविक रूप से एक सामाजिक प्रेरणात्मक आंदोलन प्रारंभहो गया - 'सांभ लओ मापे, रब मिल जऊ आपे ।' अर्थात यदि हम माता-पिता की देखभाल करें तो भगवान हमें अपने आप ही मिल जाएंगे।
मेरा विचार है कि यदि यह प्रेरणात्मक उद्घोष हर जगह-जगह प्रचलित कर दिया जाए तो अवश्य ही माता-पिता का सम्मान करने की परम्परा को घर-घर पहुंचाया जा सकेगा। इस अभियान के अंतर्गत हम आए दिन एक ऐसे परिवार को सम्मानित करते हैं, जहां माता-पिता स्वयं बढ़-चढ़कर अपने बच्चों द्वारा सुंदर देखभाल और मान-सम्मान का उल्लेख करते हुए नजर आते हैं। इस प्रकार के सम्मान समारोह से समाज के अनेकों युवाओं को अच्छी प्रेरणाएं मिलती हैं इसलिए पूरे समाज को अब यह विचार अपनी दैनिक संस्कृति की तरह स्वीकार करना चाहिए कि माता-पिता की पूरी देखभाल और उनका सम्मान ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है।
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