व्रत का अर्थ और परिभाषा , व्रत का मतलब है - संकल्प लेना, प्रतिज्ञा करना, या भक्ति करना. व्रत में संयम, नियम, और संकल्प होता है. व्रत करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है और यह मानसिक शांति के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

व्रत का अर्थ और परिभाषा vrat ka arth aur paribhasha
व्रत की परिभाषा:
- किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दिनभर के लिए अन्न या जल या अन्य भोजन या इन सबका त्याग व्रत कहलाता है.
- किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना भी व्रत कहलाता है.
- संकल्पपूर्वक किए गए कर्म को व्रत कहते हैं.
- व्रत के समानार्थी शब्द: उपवास, निराहार, अनाहार, रोजा.
व्रत करने के नियम:
- संयम नियम का पालन करना.
- देव आराधना करना.
- लक्ष्य के प्रति जागरूक रहना.
- कायिक, वाचिक, और मानसिक व्रत को शामिल करना ज़रूरी है.
- मन में काम, क्रोध, लोभ, मद, ईष्र्या, राग-द्वेष को त्याग देना चाहिए.
- सबके भले की कामना को स्थायी सोच के रूप में अपनाना चाहिए.
व्रत से जुड़ी कुछ और बातें:
- व्रत में उपवास, ब्रह्मचर्य, एकांतवास, मौन, आत्मनिरीक्षण जैसी विधियों का इस्तेमाल किया जाता है.
- व्रत में कायिक, वाचिक, और मानसिक व्रत को शामिल करना ज़रूरी है.
- व्रत में तीन बातों का विशेष ध्यान रखा जाता है: संयम नियम का पालन करना, देव आराधना करना, लक्ष्य के प्रति जागरूक रहना.
- व्रत आमतौर पर एक समापन समारोह ( उदयापन / पारण / पारण ) के साथ समाप्त होता है.
जितने विद्वान हैं, उतनी ही परिभाषाएं भी बनी हैं, इसलिए व्रत की भी कई परिभाषाएं हैं। वेदों में व्रत के कई अर्थ बताए गए हैं। व्रत 'वृ धातु' से बना है, जिसका अर्थ है पसंद करना यानी ऐसे कर्म, जो सभी को पसंद आएं, जैसे कि आज्ञापालन, धार्मिक कृत्य और कर्त्तव्य, देवोपासना, आचरण, विधियुक्त संकल्प और संकल्पानुसार कर्म।
'तैत्तिरीय संहिता' में भी इसको परिभाषित किया गया है- अन्न को बढ़ाना यानी सम्पन्नता के लिए कर्म करना भी एक व्रत है,. अतिथि सत्कार भी एक व्रत है और गरीबों की सहायता करना भी व्रत है। अपने पास सब कुछ होते हुए दूसरों की सहायता न करना व्रत का तिरस्कार है। असहायों की सहायता करना भी व्रत है।
हिन्दू धर्म क्या, हरेक धर्म ने व्रत के साथ नैतिक शिष्टाचार को महत्व दिया है। व्रत के क्षमा, सत्य, दान, शुद्धि, इंद्रिय संयम, वाणी संयम, देवपूजा, हवन, संतोष और अस्तेय, ये सभी लक्षण बताए गए हैं। समस्त व्रतों में पवित्र कार्य करने चाहिएं। मन, वाणी और कर्म की
पवित्रता ही व्रत है। इसी प्रकार सदाचार भी व्रत है। सात्विक पवित्र आचरण करना सदाचार है। दूसरों के हितों का पोषण करना ही सदाचार है।
सबसे अहम व्रत है वाणी संयम। एक उदाहरण है, सारा दिन निर्जल व्रत रहने पर भी किसी की निंदा करने में, कठोर बात कहने में या अपशब्द में कोई नियंत्रण नहीं रखा तो क्या व्रत सम्पूर्ण माना जाना चाहिए?
कटु वाणी व्रत को भंग कर देती है। भगवान ने कहा है कि 'जो भी बोलो, मधुर बोलो, प्रिय बोलो'। इसी का एक नाम वाक्य संयम् व्रत भी है। निंदा, परिहास, अश्लीलता, अनर्गल प्रलाप और विषम चर्चा का इसमें परित्याग करना होता है। सत्य, प्रिय, मधुर, हित, मित और मंगलकारी इसके तत्व हैं, इसी के साथ ही ब्रह्मचर्य और अहिंसा को भी व्रत की उपमा दी गई है। संतोष को तो सारे व्रतों से ऊपर कहा गया है। ईश्वरीय प्रसाद मान कर जो व्यक्ति संतोष रखता है, उस पर प्रभु की विशेष कृपा होती है।
व्रत की सार्थकता
सामान्यतः व्रत में अन्न विशेष का त्याग किया जाता * है। कारण है, अन्न व विभिन्न खाद्य पदार्थों के सेवन के माध्यम से हमारे अंदर पहुंचने वाले विषाक्त पदार्थों से शुद्धि। एक दिन भोजन में केवल प्रकृति प्रदत्त आहार, जैसे फल आदि लेने से शरीर को विषाक्त पदार्थों के * उत्सर्जन में सहायता मिलती है।
लेकिन यही कार्य दार्शनिक संदर्भ में भी सार्थक होता है। हर पल सांसारिक विचारधारा से प्रभावित रहने के कारण कभी सदाचारी आचरण का समय ही नहीं मिलता।
व्रत के माध्यम से अच्छे आचरण का एक दिन का अभ्यास ही हमारे हफ्ते भर के निरंकुश जीवन दर्शन का कुप्रभाव मन से हटा देता है। इस तरह मन के विकार समाप्त हो जाते हैं।
व्रत की सार्थकता है हमारे आत्मिक विकास में। यदि हम भोजन विशेष का परित्त्याग कर व्रत रखते हैं तो उसकी भी सार्थकता बन जाती है। इससे हमारी दृढ़ता परखने का मौका मिलता है। स्वाद, मनोरंजन आदि की इच्छा पर यदि एक दिन भी नियंत्रण कर लिया, तो इसका मतलब यह है कि आवश्यकता पड़ने पर एक से ज्यादा दिन भी यह नियंत्रण बनाए रख सकते हैं।
स्वयं की इच्छाओं पर खुद ही अंकुश रख कर हम खुद को किसी मनःस्थिति से मुकाबले के लिए तैयार कर लेते हैं। एक दिन स्वाद जैसे सांसारिक मोह से दूर,
रहने के बाद यह भी अनुभव हो जाता है कि ये सभी जीवन के लिए इतने जरूरी नहीं हैं, जितना हम समझते हैं। ये नियंत्रण ही हमें ईर्ष्या, लालच और अपराध जैसे बुरे आचरण से दूर रखने में सहायक होते हैं।
व्रत आत्मिक व शारीरिक शुद्धिकरण का एक तरीका तो है ही, साथ ही यह अपनी क्षमताओं से परिचय का भी एक माध्यम है।
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