भारत की पहली महिला एमडी और प्रैक्टिस करने वाली डॉक्टर | Rukhmabai Raut: Early Life, Marriage, Career and Later Life
"आप अंग्रेज लोग भारत में केवल अपने व्यापार से मतलब रखते हैं। आपके देश में तो एक महिला रानी विक्टोरिया का शासन है। भारत आकर यहां की औरतों की दुर्दशा को भी देखिए। देखिए किस तरह बालवधुएं इच्छा के विपरीत यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर की जा रही हैं।"
रख्माबाई' : भारत की पहली 'महिला डाक्टर'
एक प्रमुख समाचार पत्र में 'एक हिन्दू रमणी के नाम से यह गुमनाम पत्र 9 अप्रैल, 1887 के दिन छपा। ये वही दिन थे, जब रखमाबाई राऊत के पति दादाजी भीकाजी ने विवाह के अपने 'संवैधानिक अधिकारों की बहाली' के लिए मुम्बई की अदालत में याचिका दायर की थी।
'वैवाहिक संबंध' बनाने के अधिकार से अपनी कम उम्र का हवाला देते हुए रखमाबाई इंकार करती थीं। उनका कहना था कि कोई भी उन्हें इस शादी के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि एक तो उन्होंने कभी भी इस शादी के लिए सहमति नहीं दी और जिस समय उनकी शादी हुई, वह बहुत छोटी थीं।
पत्र से व्यथित मामले की सुनवाई कर रहे ब्रिटिश जज राबर्ट पिनहे ने इस घटना को बर्बर, क्रूर और क्रांतिकारी बताया। इस ताज्जुब के साथ, कि कोई बाला अगर अल्प वयस्क हो तो उसे जबरन विवाह के लिए कैसे विवश किया जा सकता है ?
जब देश की शीर्ष अदालतों में महिलाओं के विवाह अधिकारों को लेकर बहस गर्म है, सहसा याद आ गई हैं मुम्बई की डाक्टर रखमाबाई, जो महिलाओं के हक में बने उस ऐतिहासिक फैसले के केंद्र में रहीं, जिसके तहत 19 मार्च, 1891 को ब्रिटिश भारत में 'एज आफ कांसेंट एक्ट, 1891' कानून बनाया गया, जिसमें शारीरिक संबंधों के लिए शादीशुदा और गैर-शादीशुदा महिलाओं की सहमति की उम्र 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई थी। इसी कानून ने ही पहली बार यह तय किया कि अल्प वयस्क युवती के साथ यौन संबंध बनाने को बलात्कार मान कर सजा हो सकती है, भले ही वह विवाहित हो।
रखमाबाई 1894 में भारत की पहली महिला प्रैक्टिशनर और एम.डी. महिला डाक्टर हुई, पर उससे भी पहले वह महिला चेतना की दृष्टि से एक युग प्रवर्तक थीं। भारत की इस आरंभिक नारीवादी ने आज से 136 वर्ष पहले नारी संप्रभुता और न कहने के अधिकार को लेकर जो तर्क दिए थे, वे आज तक अकाट्य हैं।
उस जमाने में, जब पुरुषों का अपनी पत्नियों को त्याग देना या तलाक दे देना, आम बात थी। वह पहली भारतीय महिला थीं, जिन्होंने तलाक की मांग को लेकर कोर्ट में लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। वैवाहिक अधिकारों को लेकर अदालती फैसलों में उनका केस आज तक मानक है।
बाल विवाह को दी चुनौती
रख्माबाई सुतार समुदाय में 22 नवम्बर, 1864 में जन्मी थीं। दो वर्ष बाद ही पति जनार्दन पांडुरंग की मृत्यु हो जाने पर मां जयंती बाई ने के. ग्रांट मैडीकल कालेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफैसर और समाज सुधारक डा. सखाराम अर्जुन से दूसरी शादी की।
रखमाबाई की शादी 11 साल की उम्र में 8 साल बड़े दादाजी भीकाजी से हो गई थी। भीका जी अपने मामा नारायण धर्माजी के घर रहते थे, जो खुद पत्नी के आत्महत्या के प्रयास के बाद अपनी एक रखैल के साथ रहता था। इस माहौल में रखमा ने ससुराल जाना उचित नहीं समझा और माता-पिता के साथ रहकर फ्री चर्च मिशन पुस्तकालय से पुस्तकों का इस्तेमाल करके घर पर ही मन में डाक्टर बनने की इच्छा को पाले हुए पढ़ती रहीं
ऐसे में ही एक दिन ससुराल से लौटने का भीका जी का फरमान आ गया। रख्मा के इंकार से मामला जल्द ही अदालत की देहरी पर था। इस मुकद्दमे, जो मार्च 1984 से 1987 तक चला, ने भारी बवाल खड़ा कर दिया।
138 वर्ष पहले के रूढ़िवादी हिंदू समाज के लिए यह बिल्कुल अकल्पनीय बात थी कि विवाह जैसे पवित्र बंधन में बंधी एक युवती विवाह संबंध बनाने से इंकार करे। कुछ तत्कालीन बड़े नेता विरोध में उतर आए। मुम्बई हाईकोर्ट में फिर नए सिरे से मुकद्दमा शुरू हुआ और चार्ल्स फराने ने रख्मा के विरोध में फैसला दिया। अदालत ने रख्मा को दो विकल्प दिए- पहला या तो वह पति के पास चली जाए या फिर छह महीने के लिए जेल। उन्हें मुकद्दमे का खर्च देने का आदेश हुआ। एक प्रमुख समाचारपत्र के संपादक को लिखे अपने पत्र में रखमाबाई ने लिखा है- जेल चली जाऊंगी पर पति के पास नहीं जाऊंगी।
इसके बाद जो हुआ वह इतिहास और कानून की पुस्तकों में आज तक अमर है। रखमाबाई न दबी न टूटीं। तलाक के लिए उन्होंने अपनी कानूनी लड़ाई जारी रखी।
उनके पक्ष में एक आंदोलन खड़ा हो गया और प्रिवी कौंसिल में अपील के लिए सार्वजनिक रूप से फंड इकट्ठा किया जाने लगा। मामले की लपटें दूर इंगलैंड तक गईं। मैक्स मूलर सरीखे इस नाइंसाफी के विरोध में आ खड़े हुए। लंदन की महिला पत्रिकाओं में यह विषय नारीवादी बहसों का केंद्र बन गया। रखमाबाई की कोशिशों का आखिरी कदम था रानी विक्टोरिया के सम्मुख अपील, जिन्होंने आखिरकार अदालत के फैसले को पलट कर विवाह को भंग कर दिया।
मामले को तूल पकड़ता देख जुलाई 1888 में पति ने मुकद्दमा वापस ले लिया। सम्पत्ति जब्त करने की बजाय 2000 रुपए के मुआवजे के एवज में अपना दावा छोड़ उसने दूसरी शादी कर अपना घर बसा लिया।
पहली प्रैक्टिसिंग महिला डाक्टर
1889 में रखमाबाई पांच महीने की समुद्री यात्रा करके लंदन स्कूल आफ मैडीसिन फार वूमैन में अध्ययन करने इंगलैंड गईं। 1894 में स्नातक पूरा करने के बाद आगे एम. डी. करने की उनकी इच्छा थी, पर वहां यह सुविधा थी ही नहीं। उन्हें अपनी एम.डी. ब्रसेल्स में लंदन स्कूल आफ मैडीसिन से करनी पड़ी।
1895 में वह वापस भारत लौटीं और मुम्बई के कामा अस्पताल में काम शुरू करके भारत की पहली प्रैक्टिसिंग और एम.डी. महिला डाक्टर बनीं। कामा अस्पताल में अपने साथ अछूतों जैसे व्यवहार से खिन्न होकर उन्होंने मुम्बई जैसी विकसित जगह को त्याग कर चीफ मैडीकल अधिकारी बनकर सूरत जाना बेहतर समझा, जहां कोई भी डाक्टर जाने को तैयार नहीं होता था।
सूरत और राजकोट में महिला डाक्टरों के प्रशिक्षण का इंतजाम करते हुए अपना पूरा जीवन उन्होंने महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए समर्पित कर दिया। इस पेशे में तकरीबन 35 साल बिताने के बाद 25 सितम्बर, 1955 की 21 साल की उम्र में उन्होंने अपनी नश्वर देह त्याग दी।
यह कम लोगों को मालूम है कि अपनी कानून लड़ाई में महिलाओं के लिए मिसाल बनने वाली रखमाबाई ने भले आजीवन दोबारा विवाह नहीं किया था, पर 1904 में जब भीकाजी की मृत्यु हुई तब विधवाओं जैसी सफेद साड़ी पहनकर वह उनके अंत्यकर्म में शामिल हुई।
Thankyou