आज से कई सौ साल पूर्व की बात है। एक गांव में रामसिंह नामक एक किसान अपनी पत्नी व बच्चे के साथ रहता था। रामसिंह अनपढ़ व गरीब था, मगर अपने बेटे सुन्दर की वह पढ़ा-लिखाकर किसी योग्य बनाना चाहता था ताकि उसका बेटा भी उसकी भांति उम्र भर मेहनत-मजदूरी न करता रहे। अपने पुत्र से उसे बड़ी आशाएं थीं। वही उसके बुढ़ापे की लाठी था। उसका बेटा सुन्दर काफी बुद्धिमान था। वह गांव के पण्डित कस्तूरीलाल के पास जाकर शिक्षा ग्रहण कर रहा था। उसने भी अपने मन में यही सोचा हुआ था कि पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बनेगा और अपने मां-बाप के कदमों में दुनिया भर की सारी खुशियां और सारे सुख लाकर डाल देगा।
वह अपनी कक्षा में अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुआ। सारे गांव में उसकी खूब वाहवाही हुई। अपने बेटे की इस सफलता पर रामसिंह का मस्तक भी गर्व से ऊंचा हो उठा।
एक रात रामसिंह ने अपनी पत्नी से कहा, "सुन्दर की मां ! मेरे मन में सुन्दर को लेकर काफी दिनों से एक विचार उठ रहा है। क्यों न हम उसे शहर भेज दें ताकि वहां जाकर कोई अच्छा- सा काम-धंधा सीख कर कुछ बन कर दिखाए। यहां गांव में तो बस मेहनत-मजदूरी का ही धंधा है। पढ़ने-लिखने के बाद भी यदि उसे यही धंधा करना है तो पढ़ाई-लिखाई का लाभ ही क्या है ? हमारा तो अपना कोई खेत भी नहीं है, जिसमें मेहनत करके वह कोई तरक्की कर सके।"
"मगर सुन्दर के बापू ! सुन्दर ने तो आज तक शहर देखा ही नहीं है, हम किसके भरोसे उसे शहर भेज दें?" सुन्दर की मां कमला ने कहा।
"शहर में मेरा एक मित्र है, हालांकि हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे से नहीं मिले, मगर फिर भी मुझे उम्मीद है कि वह अवश्य ही सुन्दर को शरण देगा और रोजी-रोजगार ढूंढने में सहायता भी करेगा इसलिए दिल को मजबूत बनाओ। सुन्दर शहर जाकर कुछ बन गया तो हमारा बुढ़ापा भी सुख से गुजरेगा।" और इस प्रकार रामसिंह ने अपनी पत्नी को समझा-बुझाकर सुन्दर को शहर भेजने के लिए राजी कर लिया।
वास्तव में सुन्दर भी यही चाहता था कि वह किसी प्रकार शहर चला जाए और वहां कोई ऐसा काम-धंधा करे जिससे उसका परिवार सदा-सदा के लिए गरीबी से छुटकारा पाकर सुख भोगे। दूसरे ही दिन रामसिंह ने उसे दीन-दुनिया की ऊंच-नीच समझाई और अपने मित्र का पता देकर शहर के लिए विदा कर दिया। सुन्दर खुशी-खुशी शहर के लिए रवाना हो गया। शहर आकर उसकी आंखें चुंधिया गईं।
खूब भीड़-भड़क्का। सजी-संवरी दुकानें। तागों- इकों का आवागमन। आश्चर्य से वह सब देखता सुन्दर अपने पिता के कथित दोस्त से मिलने चल दिया।
लेकिन जब वह पिता के बताए स्थान पर पहुंचा तो पता चला कि उसके पिता का दोस्त रामचन्द्र तो न जाने कब का मर-खप गया और अब तो उसके परिवार का भी कोई अता- पता नहीं था। यह जानकर सुन्दर बहुत निराश हुआ और सोचने लगा कि अब क्या होगा ?
सुन्दर में हिम्मत और आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था। उसने खुद को दिलासा दिया और बोला- 'बेटे सुन्दर । निराश होने से कुछ नहीं होगा। अब शहर आ ही गए हैं तो कुछ करके ही लौटेंगे। मां और बापू ने मुझसे बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं, मैं ही उनके बुढ़ापे की लाठी हूं।'
अपने आपको इसी प्रकार हौसला बंधाता हुआ सुन्दर पूछता-पूछता एक सराय में आकर ठहर गया। स्नान आदि से निवृत्त होकर उसने थोड़ा आराम किया, फिर किसी नौकरी की तलाश में निकल पड़ा। वह जहां भी नौकरी मांगने जाता, दुकानदार उसके बातचीत करने के ढंग और उसकी सूझ- बूझ से प्रभावित तो होता, किन्तु कोई जान-पहचान न होने के कारण उसे नौकरी नहीं मिल पाती थी।
इसी प्रकार कई दिन गुजर गए। सुन्दर गांव से अपने साथ जो रुपया-पैसा लेकर आया था, वह भी लगभग समाप्त होने को था। अब तो सचमुच सुन्दर को चिन्ताओं ने आ घेरा। वह सोचने लगा कि काश! शहर में उसका कोई जानकार होता तो अवश्य ही उसे कोई नौकरी मिल जाती ।
एक दिन की बात है, सुन्दर थक-हारकर एक पेड़ के नीचे बैठा मौजूदा स्थिति के विषय में सोच रहा था। उससे कुछ ही दूर राज कर्मचारी पेड़ की छांव में बैठे गपशप कर रहे थे। अनमना-सा सुन्दर उनकी बातें सुनने लगा। एक दूसरे से कह रहा था- "कुछ भी कह भाई रामवीर ! तू है बड़ा नसीब वाला। हम * दोनों साथ-साथ ही राजदरबार की सेवा में आए थे, मगर तू तरक्की करके राजाजी का खजांची बन गया और मैं रहा सिपाही का सिपाही।"
"तकदीर भी उन्हीं का साथ देती है गंगाराम, जो सूझबूझ और हिम्मत से काम लेते हैं। मैंने अपनी सूझबूझ से कुछ ऐसे काम किए कि महाराज का विश्वासपात्र बन गया और उन्होंने मेरी ईमानदारी देखकर मुझे खजांची बना दिया।"
"न-न भाई, तू जरूर किसी साधु या फकीर से कोई मन्तर- वन्तर पढ़वाकर लाया होगा जो इतनी जल्दी इतनी तरक्की कर ली। भइया, मुझे भी अपनी कामयाबी का राज बता।"
"अरे भाई मेरे, अगर इन्सान में हिम्मत, हौसला, ईमानदारी साहस और सूझ-बूझ हो तो वह पहाड़ को खोदकर नदी बहा दे। देख, तू वह मरा हुआ चूहा देख रहा है न!" रामवीर ने सड़क के किनारे पड़े एक मरे हुए चूहे की ओर इशारा किया। "हां-देख रहा हूं।"
"आने-जाने वाले लोग भी उसे देख रहे हैं और घृणा से थूककर दूसरी ओर मुंह फेरकर निकल रहे हैं मगर कोई सूझ- बूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा। अक्ल का इस्तेमाल करने से ही इन्सान कामयाबी हासिल करता है। जन्तर- मन्तर से कुछ नहीं होता।"
"मैं समझ गया भाई रामवीर।" निराश-सा होकर गंगाराम बोला, "तू मुझे अपनी कामयाबी का । राज बताना ही नहीं चाहता। खैर, कभी तो मेरे भी दिन बदलेंगे। आ, अब चलते हैं।"
वे तो चले गए। मगर खजांची रामवीर की चूहे वाली बात ने सुन्दर के दिमाग में खलबली-सी मचा दी। उसके दिमाग में रामवीर की कही बात बार-बार गूंज रही थी 'लोग उस मरे हुए चूहे पर थूक-थूककर जा रहे हैं, मगर कोई सूझ-बूझ वाला इंसान इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमा लेगा... चार पैसे कमा लेगा... चार पैसे कमा लेगा।'
सुन्दर सोचने लगा- 'खजांची की बात में दम है। जिस देश में मिट्टी भी बिकती हो, वहां कोई चीज बेचना मुश्किल नहीं मगर इस मरे हुए चूहे को खरीदेगा कौन? कैसे कमाएगा कोई इससे चार पैसे ?' चूहे को घूरते हुए सुन्दर यही सोच रहा था, लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
तभी सड़क पर उसे एक तांगा आता दिखाई दिया, जिसमें एक सेठ बैठा था, जिसने एक बिल्ली को अपनी गोद में दबोचा हुआ था। बिल्ली बार-बार उसकी पकड़ से छूटने की कोशिश कर रही थी।
अभी घोड़ा गाड़ी सुन्दर के आगे से गुजरी ही थी कि बिल्ली सेठ की गोद से कूदी और सड़के के किनारे की झाड़ियों में जा घुसी।
"अरे... अरे तांगे वाले, तांगा रोको। मेरी बिल्ली कूद गई।" सेठ चिल्लाया। तांगा रुका और सेठ उतर कर तेजी से झाड़ियों की तरफ लपका। "अरे भाई तांगे वाले, देखो ! मेरी बिल्ली उन झाड़ियों में जा घुसी है। उसे पकड़ने में मेरी मदद करो।" सेठ झाड़ियों के पास जाकर बिल्ली को बुलाने लगा- "आ...आ...पूसी..पूसी आओ।" इसी बीच तांगे वाला और सुन्दर सहित कुछ अन्य लोग भी वहां जमा हो गए थे।
"अरे भाई ! मैं किसी खास प्रयोजन से इस बिल्ली को खरीदकर लाया हूं। कोई इसे बाहर निकालने में सहायता करो।" सेठ बेताब होकर एकत्रित हो गए लोगों से गुहार कर रहा था। झाड़ियों में घुसी बिल्ली पंजे झाड़-झाड़कर गुर्रा रही थी।
"देख नहीं रहे हो सेठजी, बिल्ली किस प्रकार गुर्रा रही है।" एक व्यक्ति बोला-"हाथ आगे बढ़ाते ही झपट पड़ेगी।"
यह सब देखकर सुन्दर के मस्तिष्क में धमाका-सा हुआ और तुरन्त उसके मस्तिष्क में एक युक्ति आ गई। वह सेठ से बोला-"सेठ जी ! अगर मैं आपकी बिल्ली को काबू करके दूं तो आप मुझे क्या देंगे?"
"आएं" सेठ जी ने तुरन्त सुन्दर की ओर देखा और बोला- "भाई ! तू मेरी बिल्ली को काबू करके देगा तो मैं तुझे चांदी का एक सिक्का दूंगा।"
"चांदी का सिक्का !" सुन्दर के मुंह में पानी भर आया- "ठीक है, आप यहीं रुकिए, मैं अभी आपकी बिल्ली काबू करके आपको देता हूं।"
कहकर सुन्दर दौड़ा-दौड़ा उसी दिशा में गया जिधर मरा हुआ चूहा पड़ा था।
'वाह बेटा सुन्दर ! बन गया काम। उस खजांची ने ठीक ही कहा था कि यदि सूझ-बूझ से काम लिया जाए तो इस मरे हुए चूहे से भी चार पैसे कमाए जा सकते हैं।
सुन्दर ने मन-ही-मन खुश होते हुए एक रस्सी तलाश की और चूह की गर्दन में फंदा डाल कर झाड़ियों की ओर चल दिया।
"हटो-हटो-सब पीछे हटो।" भीड़ को एक ओर हटाता हुआ सुन्दर बोला, "बिल्ली अभी बाहर आती है।"
"अरे! मरा हुआ चूहा ? यह तो अभी वहां पड़ा था।" किसी ने कहा।
दूसरा बोला, "भई वाह ! इस लड़के ने तो मौके का फायदा उठाकर एक सिक्का कमा लिया।"
"इसे कहते हैं, बुद्धि का करिश्मा।"
"यह लड़का अवश्य ही एक दिन बड़ा आदमी बनेगा।" लोग तरह-तरह की बातें बनाने लगे।
सुन्दर झाड़ियों के करीब बैठ गया और रस्सी से बंधे चूहे को बिल्ली के सामने लहराने लगा।
मोटे-चूहे को देखकर बिल्ली के मुंह में पानी भर आया, एक नजर उसने मैत्री भाव से सुन्दर की ओर देखा, फिर दुम हिलाती हुई धीरे-धीरे सुन्दर के करीब आने लगी। सभी लोग उत्सुकता से यह तमाशा देख रहे थे।
और फिर कुछ ही पलों बाद चूहे के लालच में जैसे ही बिल्ली बाहर आई, सुन्दर ने उसकी पीठ पर प्यार से हाथ फेरा और उसे गोद में उठा लिया।
'बुद्धि' का चमत्कार | Short Stories in hindi with moral
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फ़रवरी 15, 2024
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