पिछली कई सदियों से एक सक्रिय संघर्ष चल रहा था। प्रभु श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के धार्मिक-पौराणिक महत्व वाले मंदिर की पुनर्स्थापना का संघर्ष। माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के साथ ही उस संघर्ष की परिणति हो गई और देश-दुनिया के करोड़ों सनातनी हिंदुओं को अपने प्रभु श्रीराम की जन्मस्थली भी मिल गई।

निश्चित ही यह एक सुखद अनुभूति है, परंतु रामायण काल के कई धार्मिक-ऐतिहासिक महत्व वाले स्थलों को आज भी उपेक्षित किया जा रहा है। कभी भी ऋषि-महर्षियों और माता सीता, भ्राता लक्ष्मण, पुत्रों लव-कुश के ऐतिहासिक स्थलों की सुध ही नहीं ली गई है ।
श्रीराम जी केवल एक अकेली अयोध्या तक ही निर्धारित नहीं हैं या फिर एक नगर विशेष तक भी सीमित नहीं हैं, अपितु श्रीराम की संपूर्ण सनातन भूमि श्रीराम की लीलास्थली है। संपूर्ण राष्ट्र में श्रीराम के पद कमल अंकित हैं। उनमें भी जहां तक वर्तमान महाराष्ट्र का सवाल है, तो यह श्रीराम का महत्वपूर्ण लीला क्षेत्र है।
अयोध्या श्रीराम का जन्म क्षेत्र है तो श्रीराम का कर्म क्षेत्र संपूर्ण सनातन भूमि है जिसमें नासिक-पंचवटी, तपोवन और दंडकारण्य का भी समावेश है। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की पवित्र तपोस्थली यहां की शहापुर तहसील (तालुका) के 'आजा' पर्वत पर है, जो माता सीता की दुख की घड़ी मेंआश्रयस्थली बनी, तो पराक्रमी लव-कुश की पावन जन्म भूमि।
श्रीराम के जीवन में महर्षि वाल्मीकि का बेहद महत्व है। जब उन्हें वनवास पर जाना पड़ा तो उनकी सार्थक भेंट महर्षि वाल्मीकि से ही हुई।
श्रीराम ने महर्षि वाल्मीकि से पूछा कि हे मुनिवर, जहां मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊं और वहां सुंदर पत्तों और घास की कुटी बनाकर कुछ समय निवास करूं वह स्थान बतलाइए । तब महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम का मार्गदर्शन किया। उन्हीं के मार्गदर्शक तत्वों के आधार पर प्रभु श्रीराम ने दंडकारण्य में अपने वनवास का मार्ग निर्धारित किया। कालांतर में भी, माता सीता और श्रीराम के पुत्रों लव-कुश को सबसे प्रथम और अहम आधार संघर्ष काल में महर्षि वाल्मीकि द्वारा ही प्राप्त हुआ।
उत्तरकांड के वाल्मीकि रामायण में उल्लेखित है कि गर्भावस्था में जब लक्ष्मण जी माता सीता को वाल्मीकि आश्रम छोड़ गए, तब उस संकट काल में माता सीता को आश्रय और जन्म के बाद लव-कुश को प्रारम्भिक संस्कार महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में मिले। लव-कुश ने शिक्षा ग्रहण महर्षि वाल्मीकि के मार्गदर्शन में ही की।
महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में हीं लव-कुश ने वाल्मीकि रामायण का पठन-मनन किया एवं राम दरबार में सर्वप्रथम उसका पाठ अपने गुरु महर्षि वाल्मीकि की आज्ञा से ही किया। ये सभी कुछ उन्होंने अज पर्वत, जिसे स्थानीय संबोधन में आजा पर्वत या आजोबा पर्वत भी कहते हैं, स्थानीय-धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, वहीं किया था। तदोपरांत, महर्षि वाल्मीकि ही माता सीता को लेकर राम सभा में गए थे और फिर वहीं माता सीता धरती में समा गई थीं।
मान्यता है कि महर्षि वाल्मीकि ने सीता जी के लिए पिता की भूमिका निभाई थी। इस नाते वह उनके पुत्रों के पितामह कहलाए। सो, पर्वत का नाम आजोबा पर्वत पड़ गया। यह पर्वत रामायण युग की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। महर्षि वाल्मीकि ने यहीं से अपना भौतिक शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक को प्रस्थान किया था। आज भी यहां महर्षि वाल्मीकि की समाधि बनी हुई है। महर्षि वाल्मीकि का स्थान शाहपुर की गुंडे-डेहने ग्राम पंचायत की सीमा में है। इस संदर्भ के सूत्र एवं सबूत यहां स्थित देवस्थान से प्राप्त होते हैं।
यहां गंगा जी के अवतरित होने के भी प्रमाण मौजूद हैं तो यहाँ पर लव-कुश का पालना भी है । अर्थात, राम और रामायण में महर्षि वाल्मीकि आश्रम का क्या महत्व है, यह तथ्य उसे रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं।
आजोबा पर्वत
पश्चिमी घाट की सह्याद्री रेंज में आजोबा पर्वत समुद्र तल से 4511 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसका आधार गांव शाहपुर तालुका में स्थित देहाइने है।


ट्रैकिंग का अनुभव
आजोबा पर्वत की चोटी पर कुछ खास नहीं है, जिस वजह से ज्यादातर ट्रैकर्स दाहिनी ओर ट्रैक करते हैं, जहां 'सीता चा पालना' स्थित है। समुद्र तल से लगभग 2300 फुट की ऊंचाई पर लव-कुश गुफा या 'सीता चा पालना' ट्रैक आखिरी प्वॉइंट है।
दाहिनी ओर के पहाड़ पर और उसके ऊपर 'सीता चा पालना' स्थित है और जिस गुफा में लव-कुश के चित्र उकेरे गए हैं, वहां एक चट्टान भी दिख जाएगी।

वाल्मीकि जी के आश्रम के लिए ट्रैक का दूसरा भाग बहुत ही खड़ी चट्टानी इलाके के साथ है, जो काफी मुश्किल है। वहां पहुंचकर आपको पत्थरों पर कई कथाएं खुदी हुई दिखेंगी।

कैसे पहुंचें ?
आजोबा ट्रैक शुरू करने के लिए देहाइने बेस वाले गांव तक जाने के लिए मुम्बई से लोकल ट्रेन सबसे सस्ती पड़ेगी। आसनगांव रेलवे स्टेशन पहुंच कर प्राइवेट रिक्शा, बस या शेयरिंग जीप ले सकते हैं, जो आपको देहाइने गांव पहुंचा देगी।
आगे देखे : Lepakshi Temple | लेपाक्षी मंदिर
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