सत्संग Satsang का शाब्दिक अर्थ ही यही है कि सच को साथ रखना, सच्चाई एवं जो पूर्ण रूप से सच्चे हों, उनके सानिध्य में रहना और उनके मुखारविंद से कही बातों को अमलीजामा पहनाना।
एक बार देवर्षि नारद भगवान विष्णु के पास गए और प्रणाम करते हुए बोले, "भगवन, मुझे सत्संग की महिमा बताने की कृपा करें।"

भगवान मुस्कुराते हुए बोले, "नारद ! तुम यहां से सीधे आगे की ओर जाओ, वहां इमली के पेड़ पर एक प्राणी मिलेगा। वह सत्संग की महिमा जानता है और वह तुम्हें समझाएगा भी।"
नारद जी मन की जिज्ञासा शांत होती देखकर खुशी- खुशी इमली के पेड़ के पास गए और गिरगिट से बातें करने लगे। उन्होंने गिरगिट से सत्संग की महिमा बारे पूछा। यह प्रश्न सुनते ही वह गिरगिट पेड़ से नीचे गिर गया और मर गया। नारद मुनि आश्चर्यचकित होकर लौट आए और भगवान को सारा वृतांत सुनाया।
भगवान फिर मुस्कुराए और बोले, "इस बार तुम नगर के अमुक धनवान के घर जाओ और वहां जो तोता दिखेगा, उसी से सत्संग की महिमा पूछ लेना।"
नारद जी क्षण भर वहां पहुंचे गए और तोते से सत्संग का महत्व पूछा। थोड़ी ही देर में तोते की आंखें बंद हो गईं और उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। इस बार तो नारद जी घबरा गए और जल्दी से भगवान विष्णु के पास पहुंचे और बोले, "भगवान! यह क्या लीला है? क्या सत्संग का नाम सुनकर मरना ही सत्संग की महिमा है ?"
भगवन हंसते हुए बोले, "नारद मुनि ! आपकी जिज्ञासा जल्द ही शांत होगी। इस बार तुम राजा के महल में जाओ और उसके नवजात पुत्र से अपना प्रश्न पूछो।" नारद जी मन ही मन बहुत घबरा रहे थे, बोले, "अभी तक तो प्राणी ही प्राण छोड़ रहे थे। इस बार अगर वह नवजात राजपुत्र भी मर गया तो राजा मुझे जमीन में जिंदा ही गड़वा देगा।" भगवान विष्णु ने नारद जी को अभयदान का आशीर्वाद दिया तो नारद जी दिल को मुट्ठी में रखकर राजमहल पहुंच गए। वहां उनका बड़ा सत्कार किया गया। बड़े ही आदर भाव से उन्हें आसान देकर बिठाया गया। राजमहल में बड़ी खुशियां मनाई जा रही थीं। बड़े वर्षों बाद राजा को संतान सुख मिला था। पुत्र के जन्म पर बड़े आनंदोल्लास से उत्सव मनाया जा रहा था। राजा सभी को मूल्यवान उपहार दे रहे थे। नारद जी को राजपुत्र के पास ले जाया गया।
पसीने से तर-बतर हुए, मन ही मन श्री हरि का नाम लेते हुए नारद जी ने राजपुत्र से सत्संग की महिमा के बारे में प्रश्न किया तो वह नवजात शिशु हंस पड़ा और बोला, "महाराज ! चंदन को अपनी सुगंध और अमृत को अपने माधुर्य का पता नहीं होता। । ऐसे ही आप अपनी महिमा नहीं जानते, इसलिए मुझसे पूछ रहे हैं कि वास्तव में आप के ही क्षण मात्र के संग से मैं गिरगिट की योनि से मुक्त हो. गया और आपके आप के ही दर्शन मात्र से तोते की योनि से. भी मुक्त हो गया और इस दुर्लभ योनि मनुष्य जन्म को पा सका। आपके सानिध्य मात्र से मेरी किनती सारी योनियां कट गईं और मैं सीधे मानव तन में ही नहीं अपितु राजपुत्र भी बना। यह सत्संग का ही अद्भुत प्रभाव है।"
राजा-रानी और वजीर यह दृश्य देखकर हैरान हो रहे थे कि नारद मुनि तो बोल रहे हैं पर नवजात शिशु कुछ भी नहीं बोल रहा था, तो नारद जी बच्चे से क्या पूछ रहे हैं। दोनों में क्या वार्तालाप हो रहा है?
बाल बोला, "हे ऋषिवर ! अब आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं मनुष्य जन्म के लक्ष्य को पा सकूं।"
नारद जी ने नवजात शिशु के सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया और कक्ष में बैठे राजा-रानी की जिज्ञासा को भी यह कहकर शांत किया कि नवजात शिशु की आत्मा से वार्तालाप हो रहा था यह बच्चा महाराजा की तरह जाना जाएगा।
नारद मुनि भगवान श्री हरि के पास आए और सारा बतांत सनाया। भगवान ने कहा, "सचमुच सत्संग की बड़ी महिमा है। संत का सही गौरव या तो संत जानते हैं या उनके सच्चे प्रेमी भक्त।"
इसलिए जब भी कभी मौका मिले, सत्संग का लाभ ले लेना चाहिए। क्या पता किस संत या भक्त के मुख से निकली बात जीवन सफल कर दे। तभी कहा गया है:
यदि सौ चंद्रमा उदय हो जाएं और हजारों सूर्य प्रकट हो जाएं, तो ऐसी रोशनी होने पर भी गुरु के बिना घोर अंधकार ही रहेगा ।
.... और देखें : भारत के प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर – Historical Temples of India
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