यदि हमें अपने जीवन में किसी से प्रतिशोध लेना है तो हम अपने कर्मों द्वारा अपने आपको उस व्यक्ति से बड़ा बना कर उसको पराजित कर सकते हैं। जब बैजनाथ के पिता मृत्यु शैया पर थे तो उन्होंने पीड़ा भरे स्वर में बैजनाथ से कहा, "बेटा मैं अपनी संगीत कला के द्वारा जीते-जी अपने दुश्मन को हरा न सका, मेरे मन में इस बात की बड़ी भारी पीड़ा है।"
बैजनाथ ने पिता से प्रण किया कि वह उनके दुश्मन से बदला लेगा। इसके बाद बैजनाथ के पिता ने सदा के लिए आंखें मूद लीं। बैजनाथ के मन में विचार उठा कि पिता जी के शत्रु से बदला लेने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि संगीत के क्षेत्र में उससे भी बढ़कर काम किया जाए। उसने मन ही मन संगीत की साधना करने की ठानी।
कुछ ही समय में बैजनाथ संगीत में ऐसा खोया कि लोग उसे बावरा कहने लगे। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। एक दिन वहां के राजा उसकी ख्याति और संगीत कला का जादू सुनने स्वयं अपने दरबार के मशहूर गायक के साथ बैजनाथ के पास पधारे।
राजा बैजनाथ संगीत को सुनकर वाह-वाह कर उठे और राजा ने बैजनाथ को राजमहल चलने को कहा पर वह जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा, "ईश्वर के मुकाबले किसी व्यक्ति विशेष के दरबार में गाना, संगीत और कला के लिए जाना मुझे अनुचित लगता है।" राजा के साथ आया मशहूर संगीतकार और गायक भी नतमस्तक हो गया। बैजनाथ के समक्ष उसे अपना अस्तित्व और अपनी साधना अत्यधिक तुच्छ एवं छोटी अनुभव हुई। बैजनाथ अपने पिता की इच्छा पूरी कर प्रतिशोध ले चुके थे। राजा के साथ आया मशहूर संगीतज्ञ ही बैजनाथ के पिता का संगीत क्षेत्र का शत्रु था। वह गायक कोई और नहीं संगीत सम्राट तानसेन था जबकि राजा का नाम बादशाह अकबर था।
यह बैजनाथ ही आगे चलकर बैजू बावरा के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनका मानना था कि शत्रु को हथियार से नहीं बल्कि अपने कर्मों की बड़ी रेखा खींचकर हो पराजित किया जाना चाहिए।
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