उदासीन सम्प्रदाय के आचार्य देव भगवान श्रीचंद्र का अवतरण भाद्रपद शुदी नवमी विक्रमी सम्वत् 1551 को श्री गुरु नानक देव जी के गृह माता सुलखनी जी की कुक्षी से सुल्तानपुर लोधी, जिला कपूरथला, पंजाब में हुआ।
यह एक ऐसा समय था, जब दानवता मानवता पर सवार थी। जातिगत कट्टरता, धार्मिक संकीर्णता एवं सामाजिक शोषण चरमोत्कर्ष पर थे। पिता सद्गुरु नानक देव ने बालक का नाम 'श्रीचंद्र' रखा। आपने मानवता के धर्म से विमुख हो चुके मानव को मानवोचित धर्माचरण करने का पावन संदेश दिया। अपनी पवित्र वाणी में धैर्य, दया, शालीनता, क्षमा, संयम आदि गुणों को धारण करने का उपदेश दिया।
मात्रावाणी के माध्यम से मानव मात्र को आचार्य श्रीचंद्र जी का दिया गया पावन संदेश' वाद विवाद मिटावो आपा' आज भी उतना ही उपयोगी है जितना कि उस समय था। इसका भाव यह है कि हे मानव, यदि अपना व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन सुखी देखना चाहते हो तो आपस में वाद-विवाद मिटा लो। द्वेष से बढ़कर कोई शत्रु नहीं। यह ऐसा संक्रामक रोग है, जो अविलंब फैलता है और देखते ही देखते समस्त मानवता को अपनी चपेट में ले लेता है।
श्रीचंद्र जी ने मानव मात्र को ऊंच-नीच के भेद एवं जाति, वर्ण, भाषा, धर्म आदि के आधार पर उत्पन्न भेदभाव से सर्वदा मुक्त रहने का उपदेश दिया। आपके मतानुसार निर्वैरता ही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है।
जनमानस के कल्याण के लिए आपने अपने पिता के मार्ग का अनुसरण किया और धर्म का प्रचार-प्रसार करने यात्रा पर निकल पड़े। आपकी यात्राओं का उद्देश्य जनमानस के अंतर्गत आत्मविश्वास उत्पन्न करना एवं नवचेतना का संचार करना था। अपनी यात्राओं के अंतर्गत आप पेशावर, नगर टट्ट्ठा, सिंध प्रांत, काबुल, कंधार, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान एवं काशी विश्वनाथ, जगन्नाथ, प्रयागराज आदि स्थानों पर गए।
उस समय के शासकों को अपने चमत्कारों एवं उपदेशों से सन्मार्ग पर लाते हुए धर्म पर बलात् प्रतिबंध लगाने से हटाया और अपने उपदेशों के माध्यम से शासक धर्म क्या होता है, उसके विषय में बतलाया। उदाहरणार्थ, श्रीनगर में याकूब खां भगवान के चरणों में नतमस्तक हो गया और सभी तरह के धार्मिक प्रतिबंध हटा दिए।
यूं तो भगवान निरंतर यात्राओं में रहे परंतु उनके कुछ ऐसे स्थान हैं जहां पर उन्होंने निरंतर रह कर तपश्चर्या की। जैसे पंजाब के गुरदासपुर जिले में बारठ। यह गुरु नानक देव जी महाराज का ननिहाल था। उनकी अनुपस्थिति में जब अपनी माता और बुआ आपको इस स्थान पर लाईं तो एक बार गुरु नानक देव जी के मामा कृष्णा ने घर से बाहर जाकर एक निर्जन स्थान पर आपको समाधि लगाए बैठे देखा और वह आश्चर्यचकित हुआ।
बचपन में इस स्थान पर तपस्या करने के कारण आपका लगाव इस ग्राम के साथ हो गया और जब कभी अपनी किसी यात्रा से आप वापस लौटते तो यहीं निवास करते।
इतिहासकारों के मतानुसार, जीवन के लगभग 36 वर्ष आप इस ग्राम में अलग-अलग समय पर रहे। भगवान का यह तपस्थान आज भी विद्यमान है। हर अमावस्या पर भारी मेला लगता है और श्रीचंद्र नवमी का पर्व मनाया जाता है। ऐतिहासिक मान्यता के अनुसार तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे गुरु इसी स्थान पर भगवान से मिलने के लिए आए।
श्रीचंद्र जी ने भगवान श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका में भी एक अद्भुत चमत्कार किया। वहां एक वृद्धा की मदद के लिए पानी से उसका घड़ा भरने के लिए उन्होंने शंख धरती पर गाड़ दिया। देखते ही देखते शंख के ऊपरी भाग से फव्वारे के रूप में जल की धार फूट पड़ी। शंख से निकले इस जलस्रोत का नाम 'श्रीचंद्र शंखेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
आप सम्पूर्ण जीवन जनमानस के कल्याण के - लिए व्यतीत कर 149 वर्ष की आयु में रावी नदी के किनारे पहुंच कर मल्लाह से नदी पार करवाने के लिए कहने लगे। मल्लाह ने मुस्कुराते हुए कहा, आप तो सारे जीवों को संसार सागर से पार करने वाले हो, इस छोटी-सी नदी से पार होना आपके लिए कौन-सी बड़ी बात है ? मल्लाह की शंका दूर करने के लिए आपने जिस शिला पर विराजमान थे, उसी को नदी पार कराने की आज्ञा दी।
शिला पर सवार होकर नदी पार जाते हुए वरुण देवता को उपदेश देकर चम्बा से मणिमहेश होते हुए उदासीनाचार्य सदेह कैलाश की ओर चले गए।
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