सर्वविदित तथ्य है कि हम सभी इस दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। दुनिया का कोई भी मनुष्य, अमीर हो या गरीब, चाहकर भी अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता। जब हम सभी इस हकीकत से वाकिफ हैं, तो फिर इतना कुछ संचय करने की आवश्यकता क्या है ? यथार्थ रीति से अपना जीवन किस प्रकार जीना चाहिए, यह हमें प्राचीनकाल के ऋषियों के जीवन से बखूबी सीखने को मिलता है, क्योंकि सभी की तरह वे भी गृहस्थ थे, परन्तु पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी उन्होंने आत्म-तत्व की जो विशद व्याख्या की है, उसका मूलतः कारण वही था कि वे एकांत-चिन्तन और आत्म-शोधन के लिए भी पर्याप्त समय निकालते थे।
अतः हमें यह सीखना और समझना चाहिए कि जीवन के गूढ़ प्रश्नों का उत्तर जो हमें आंतरिक शांति दे सकता है, उसे बाहरी वस्तुओं में या शोरगुल के बीच खोजना निरर्थक है। उसके लिए चाहिए' एकांत' जहां मनुष्य निर्विघ्न प्रश्नों की गहराइयों में डूब जाए और विचारों के उमड़ते हुए समुद्र में से सत्य रूपी मोती ढूंढकर बाहर निकल आए।
हममें से अधिकांश लोग यह जानते ही नहीं कि आत्मा को शरीर प्राप्त करने के बाद जो पहला संस्कार प्राप्त होता है, वह है एकांत में वास करने का। सरल भाषा में कहें तो आत्मा लगभग चार माह के गर्भस्थ अविकसित शरीर में प्रवेश करती है और लगभग पांच माह तक का एकांतवास करती है।
उस दौरान यदि उसे अपने पूर्व जन्म के श्रेष्ठ कर्मों की स्मृति रहती है, तो उसे गर्भ का एकांत कष्टप्रद नहीं लगता। इसके साथ-साथ उस पर अपनी माता की मनःस्थिति का भी प्रभाव पड़ता रहता है। मसलन, यदि माता शुभ, श्रेष्ठ संकल्पों में रहती है तो गर्भस्थ शिशु का एकांतवास भी श्रेष्ठ बन जाता है, पर यदि माता की अवस्था इसके विपरीत रहती है तो शिशु को अंदर ही अदंर बहुत पीड़ा का अनुभव करना पड़ता है।
विश्व भर के चिकित्सीय मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार, जो माता अपनी गर्भावस्था की सम्पूर्ण अवधि के दौरान शांत व सुखमय वातावरण के बीच रहकर आध्यात्मिक साधना में अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताती है, वह एक स्वस्थ और तेजस्वी बालक को जन्म देती है।
आध्यात्मिक साधना में एकांत का बड़ा महत्व है। एकांत में मनुष्य अपने अंदर झांक कर श्रेष्ठता के स्रोत का अनुभव कर सकता है, उसे जीवन में उतार सकता है। मनुष्यात्मा में जो अनेक मौलिक व दिव्य शक्तियां समाई हुई हैं, आज वह उनका इस्तेमाल इसलिए ही नहीं कर पाता क्योंकि उसने अपने जीवन में एकांत में जाना या रहना सीखा ही नहीं।
सदैव सामाजिक जीवन में व्यस्त एवं अपने प्रिय परिजनों में ही लिप्त रहकर मनुष्य सारा जीवन देहधारियों के पीछे एवं स्थूल व अल्पकालीन सुखों के पीछे भागता रहता है, परंतु उसे अपने अंदर की अलौकिक दिव्य दुनिया में छुपे हुए अतीन्द्रिय सुख को भोगने की सुध ही नहीं रहती।
संयोग से यदि वह कभी एकांत में कहीं बैठ भी जाता है, तो अपने संस्कारवश वह पुनः बाह्य जगत की दुखदायी घटनाओं का ही चिंतन करने लगता है। ऐसा एकांत फिर उसे उदासी, विषाद में ले जाकर डिप्रैशन का मरीज बना देता है। इसलिए सर्वप्रथम हमें जरूरत है अध्यात्मिक साधना-चिन्तन द्वारा स्वयं के 'शांत स्वरूप' व 'एकांत स्वरूप' को जानने, पहचानने व अनुभव करने की, उसके पश्चात ही हम सही मायने में एकांतवास का लाभ उठा सकेंगे, अन्यथा जिस मर्ज की हम दवाई करने जाएंगे, वह दवाई ही हमारे लिए जहर बन जाएगी।
Thankyou