श्री हनुमान जी ( Shree Hanuman Ji ) के वेगपूर्वक आकाश में उड़ने से ऐसी ध्वनि हो रही थी जैसे भयंकर आंधी चल रही हो। आकाश मार्ग से उड़ते हुए वह अयोध्या के ऊपर पहुंचे ही थे कि भगवान श्री राम के चरणानुरागी श्री भरत जी ने यह सोच कर कि शायद कोई बलवान राक्षस विशाल पर्वत लिए जा रहा है, अपना धनुष उठाया। उस पर बिना नोक का बाण रख कर प्रत्यंचा चढ़ाई तथा उसे धीरे से आकाश की ओर छोड़ दिया।
Bharat Hanuman Samvad बाण सीधे हनुमान जी के सीने में लगा। वह बाण लगते ही अपने आपको संभाल न सके और देखते ही देखते धरती पर गिर पड़े परंतु महान आश्चर्य! भरत जी के बाण के अमोघ प्रभाव से पहाड़ आकाश में ही स्थिर रह गया।
धरती पर गिरते ही श्री हनुमान जी के मुंह से निकली 'श्रीराम ! जयराम !! जय श्री सीता राम' की पवित्र ध्वनि से सम्पूर्ण वातावरण गूंज उठा। ये पवित्र शब्द कान में पड़ते ही श्री भरत जी बड़े ही वेग से गिरे हुए श्री हनुमान जी की ओर दौड़ पड़े। मूच्छित होने पर भी श्री हनुमान जी के मुंह से अब भी 'श्री राम! जय राम! जय श्री सीता राम' की आवाज निकल रही थी।
जटाजूटधारी श्री भरत जी के नेत्र बहने लगे। उन्होंने मूच्छित श्री हनुमान जी के सिर को अपनी गोद में रख लिया। उनको सचेत करने के अनेक यत्न किए, परन्तु सब व्यर्थ हो गए।
( hanuman bharat milan ) अंत में उन्होंने कहा कि अब मैं श्री रघुनाथ जी की करुणा का स्मरण कर शपथपूर्वक कहता हूं कि यदि भगवान श्री राम के चरण कमलों में मेरी निश्छल प्रीति हो तो यह वानर पीड़ा मुक्त होकर तुरंत सचेत हो जाए। 'भगवान श्री राम की जय' कहते हुए हनुमान जी तुरंत उठकर बैठ गए। वह पूर्ण रूप से स्वस्थ और सशक्त हो गए। अपने सम्मुख श्री भरत जी को देखा तो समझा कि मैं श्री रघुनाथ जी के समीप हूं। उन्होंने तुरंत उनकेचरणों में दंडवत करके पूछा, "प्रभो। मैं कहाँ हूँ।" "यह तो अयोध्या है।" आंसू पोंछते हुए श्री भरत जी ने कहा, "तुम कौन हो कपिश्रेष्ठ !"
"यह अयोध्या है। तब तो मैं अपने स्वामी की पवित्र पुरी में पहुंच गया हूं।" हनुमान जी भाव विभोर होकर बोले, "लगता है आप श्री भरत जी हैं। अहा! मैं आज धन्य हो गया। जिसकी प्रभु श्री राम अपने मुंह से प्रशंसा करते नहीं थकते, आज मैं उन परम भाग्यवान भरत जी के सामने हूं।"
"हां भैया! वह भरत मैं ही हूं, जिसके कारण भगवान श्री राम को वनवास का दुख भोगना पड़ रहा है। मैं तुम्हारा परिचय पाने के लिए व्यग्र हूं।"
हनुमान जी का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने श्री भरत के चरणों में प्रणाम किया और अपना परिचय देकर युद्ध का सारा समाचार बताया।
रोते हुए श्री भरत जी ने हनुमान जी को हृदय से लगा लिया और कहा, "मैं कितना अभागा हूं। प्रभु श्री राम के एक भी काम नहीं आ पाया। मेरे ही कारण प्रभु को समस्त विपत्तियां झेलनी पड़ रही हैं। लक्ष्मण मूच्छित पड़े हैं, तब मैंने और व्यवधान पैदा कर दिया
भरत जी ने कहा, भाई हनुमान! तुम मेरे बाण पर बैठ जाओ, तुम्हें अभी श्री राम के पास पहुंचा देता हूं।"

पहले तो हनुमान जी Hanuman ji के मन में शंका हुई लेकिन प्रभु के प्रताप और भरत जी की भक्ति का स्मरण कर वह निर्मूल हो गई। इसके बाद श्री हनुमान जी ने भरत जी के चरणों में प्रणाम कर शीघ्रता से लंका की ओर प्रस्थान किया
लेखक ज्योतिषाचार्य सुंदरमणि, उत्तरकाशी
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