शिवाजी महाराज के दरबार में अनेक शूरवीर महारथी थे। दादा कोंडदेव उनमें प्रमुख थे। वह शिवाजी महाराज को शस्त्र विद्या सिखाते थे। वह उनके प्रमुख सलाहकारों में से भी एक थे। एक बार वह दरबार से अपने घर को वापिस जा रहे थे। राजा के बगीचे से उनके घर का रास्ता गुजरता था। उनकी नजर बगीचे में गुजरते समय आम के पेड़ पर लटके हुए आमों पर पड़ी और आमों को देखकर उनका मन उन्हें तोड़ने को मचल पड़ा। वह कुछ आम पेड़ से तोड़कर अपने घर ले गए। पत्नी ने बड़े-बड़े आम देखकर उनसे पूछा, "आप इन्हें कहां से लाए हो ?" वह बोले, "राजा के बगीचे से तोड़ कर लाया हूं।" पत्नी ने पूछा, "क्या आपने इसके लिए राजा से आज्ञा ली थी ?"

दादोजी कोंडदेव
पत्नी की बात सुनकर दादा कोंडदेव को अपनी गलती का एहसास हो गया और उनका मन ग्लानि से भर गया। अपने द्वारा किए गए गलत कार्य की सजा क्या हो सकती है, यह उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा, तो पत्नी ने उन्हें सुझाया कि चोरी के लिए बढ़े हुए हाथों को ही सजा के रूप में काट देना चाहिए।
इतना सुनते ही दादा कोंडदेव ने अपने हाथ काटने के लिए उन्होंने म्यान में से तलवार निकाल ली किंतु उनकी पत्नी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया और समझाया कि इतनी क्रूर सजा अपने आपको देना ठीक नहीं है। इससे तो आपका ही नहीं, पुरे देश का भी नुक्सान होगा। आप भविष्य में आप अपने राजा का कोई कार्य नहीं कर पाओगे। फिर पत्नी ने दादा कोंडदेव को शांति से समझाया कि आप अभी प्रण लो कि आगे से फिर कभी ऐसा कार्य नहीं करोगे तथा प्रतीकात्मक सजा के रूप में, पत्नी ने उन्हें उन्ही के कुर्ते की दोनों बाहें काटने की सलाह दी और कोंडदेव ने वैसा ही किया। अगले दिन जब वह दरबार में बिना बाहों वाला कुर्ता पहनकर गए तो दरबारी उनकी हंसी उड़ाने लड़ गए ।
जब सभी दरबारियों ने उनके बिनाबाहों वाले कुर्ते में आने का असली कारण पूछा तो उन्होंने फिर सारी बात सच-सच बता दी। सारे दरबारी इस घटना को जानकर बहुत प्रभावित हुए। इसके बाद भी दादा कोंडदेव ने साडी जिंदगी बिना बाहों वाला कुर्ता ही पहनते थे ताकि उन्हें गलत कार्य का अहसास होता रहे जो उन्होंने किया ।
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प्रकृति किसी न किसी रूप में सजा अवश्य देती है।
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