आर्यसमाज के पहले सदस्यों' में से एक थे क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत 'श्यामजी कृष्ण वर्मा' ( Shyamji Krishna Varma short note ) 1857 में जब देश को गुलामी के पंजे से छुड़ाने के लिए विद्रोह की ज्वाला भड़क रही थी, उसी समय 4 अक्तूबर, 1857 को गुजरात के मांडवी में श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म हुआ था। जब वह 11 साल के थे, तब उनकी माता की मृत्यु हो गई। दादी ने ही इनकी परवरिश की।

श्यामजी की आयु 12 वर्ष की थी, उस समय एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवरबा देश भर के तीर्थ स्थानों का भ्रमण करती हुई द्वारिका से नारायण सरोवर जाते हुए मांडवी पहुंची।
बालक श्यामजी उनसे बड़े प्रभावित हुए और उनकी सेवा करने लगे। कच्छ की यात्रा में श्यामजी उनके साथ हो गए। यात्रा के दिनों में माता हरिकुंवरबा ने उन्हें संस्कृत का कुछ अभ्यास कराया, संस्कृत की पुस्तकें भेंट कीं और आशीर्वाद देकर घर लौटा दिया।
घर लौटने पर श्यामजी को संस्कृत का अभ्यास करने की धुन सवार हो गई। संस्कृत सीखने के लिए वह पंडितों के घर जाने लगे। कुछ समय में वह संस्कृत में अच्छा बोलने लगे। उनकी मधुर संस्कृत सुनकर कच्छ-निवासी बंबई के सेठ मथुरादास भाटिया बहुत प्रभावित हुए और उन्हें बंबई ले आए तथा विल्सन हाई स्कूल में दाखिला करा दिया। यहां उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया, साथ ही अन्य भारतीय भाषाओं के लिए भी रुचि जाग्ग्रत हुई।
1875 में इन्होंने सेठ छबीलदास श्यामजी की बेटी भानुमती भाटिया, जो इनके दोस्त रामदास की बहन थी, से शादी कर ली।
वह काशी के पंडितों से 'पंडित' का खिताब पाने वाले पहले गैर-ब्राह्मण थे। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर एवं संस्कृत के विद्वान होने के कारण ही उन्हें ऑक्सफोर्ड प्रोफैसर मोनियर विलियम्स ने अपना सहायक बनने की पेशकश की।
1879 में वह इंगलैंड गए और प्रो. मोनियर की सिफारिश पर संस्कृत विभाग के सहायक प्रोफैसर के रूप में ऑक्सफोर्ड के बैलिओल कॉलेज में नियुक्त हो गए।
वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से बी.ए., एम.ए. और बैरिस्टर की डिग्रियां प्राप्त करने वाले प्रथम भारतीय होने के अतिरिक्त अंग्रेजी राज को हटाने के लिए विदेशों में भारतीय नवयुवकों को प्रेरणा देने वाले, क्रांतिकारियों का संगठन करने वाले पहले हिन्दुस्तानी थे।
इन्होंने इंगलैंड से वापस आने पर 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। इन्हें देशभक्ति का पहला पाठ आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती ने पढ़ाया।
1875 में जब स्वामी दयानंद जी ने बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तो श्यामजी कृष्ण वर्मा उसके सबसे पहले सदस्य बनने वालों में से एक थे। स्वामी जी के चरणों में बैठ कर इन्होंने संस्कृत ग्रंथों का स्वाध्याय किया। 1897 में वह पुनः इंगलैंड गए। 1905 इंगलैंड से मासिक 'द इंडियन सोशओलॉजिस्ट' प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा में भी किया गया।
इंगलैंड पढ़ने के लिए जाने वाले हिंदुस्तानी विद्यार्थियों को वहां रहने में बड़ी कठिनाई होती थी। श्यामजी ने उनके रहने की सुविधा के लिए विशाल भवन खरीद कर 'इंडिया हाऊस' की स्थापना की और घोषणा की कि हमारा उद्देश्य 'भारतीयों के लिए भारतीयों द्वारा भारतीयों की सरकार स्थापित करना है।'
इंडिया हाऊस हिंदुस्तानी छात्रों का गढ़ बन गया। उन्होंने तेजस्वी छात्रों को महर्षि दयानंद, छत्रपति शिवाजी तथा राणा प्रताप आदि छात्रवृत्तियां देने की घोषणा की और वीर सावरकर को छात्रवृत्ति देकर इंगलैंड बुलाया। सावरकर तथा मदनलाल ढींगरा आदि नौजवान इंडिया हाऊस में रहकर श्यामजी से देशभक्ति की दीक्षा लेने लगे।
कुछ मित्रों के विश्वासघात तथा स्वार्थी स्वभाव के कारण वह बड़े हताश हो गए। जीवन के अंतिम 7 वर्ष उन्होंने जिनेवा में निराशाजनक स्थिति में बिताए। 31 मार्च, 1930 (कहीं कहीं 30 मार्च) को एक अस्पताल में वह अपना नश्वर शरीर त्यागकर चले गए।
उनका शव भारत नहीं लाया जा सका और वहीं उनकी अन्त्येष्टि कर दी गई तथा अस्थियों को जिनेवा की सेंट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दिया गया।
पति के वियोग में भानुमती भी अधिक समय इस संसार में न रह सकीं। उनकी अस्थियां भी उसी सीमेट्री में रख दी गईं। स्वतंत्रता के 56 वर्ष बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी और भारत सरकार ने स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत लाकर मांडवी में दर्शनीय क्रान्ति-तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृति कक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण प्रदान किया।
'स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर ही रहूंगा' का नारा देकर नौजवानों में नया जोश भरने वाले .... जानिए
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