जानिए सीधे चांद पर क्यों नहीं ले जाते अंतरिक्ष यान, बार-बार उसे घुमाते क्यों हैं भारत के 'चंद्रयान 3' 'Chandrayaan-3' को लेकर एक सवाल कई लोगों के मन में है कि इसे सीधे चंद्रमा पर भेज सकते हैं तो इतना घुमाने की जरूरत क्या है, खासकर जब अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा #nasa 4 दिन में ही अपना यान चंद्रमा तक पहुंचा देती है, तो भारत की अंतरिक्ष एजेंसी इसरो #isro को इस काम में 42 दिन क्यों लग रहे हैं ?

ऊपर चित्र में पहले धरती फिर चांद के चक्कर लगाता यान #Chandrayaan-3
चांद सामने दिखता है। वैसे धरती से उसकी दूरी 3.83 लाख किलोमीटर है। यह दूरी केवल 4 दिन में पूरी हो सकती है या हफ्ता भर में, लेकिन इसरो क्यों ऐसा नहीं करता ? इन सवालों के जवाब में प्रमुख चीजें हैं फिजिक्स यानी भौतिक विज्ञान, लागत यानी पैसा और ईंधन की बचत ।
बाकी दुनिया से किफायती होता है इसरो का मिशन Chandrayaan-3
ऐसा नहीं है कि इसरो सीधे अपने यान को चंद्रमा तक नहीं भेज सकता लेकिन नासा की तुलना में इसरो के प्रोजैक्ट किफायती होते हैं और मकसद भी पूरा हो जाता है।
इसरो के पास नासा की तरह बड़े और ताकतवर रॉकेट नहीं हैं जो चंद्रयान को सीधे चंद्रमा की सीधी कक्षा में डाल
सकें। ऐसे रॉकेट बनाने के लिए हजारों करोड़ रुपए लगेंगे।
सकें। ऐसे रॉकेट बनाने के लिए हजारों करोड़ रुपए लगेंगे।
चीन ने भी 2010 में 'चांगई-2 मिशन' चंद्रमा पर भेजा था जो 4 दिन में ही चांद पर पहुंच गया था। 'चांगई -3' भी लगभग इतने ही समय में चांद तक पहुंच गया था।
सोवियत संघ का पहला लूनर मिशन 'लूना-1' केवल 36 घंटे में चांद के नजदीक पहुंच गया था। अमरीका का 'अपोलो-11 कमांड मॉड्यूल कोलंबिया' भी 3 एस्ट्रोनॉट्स को लेकर 4 दिन से थोड़ा ज्यादा समय में पहुंच गया था।
सोवियत संघ का पहला लूनर मिशन 'लूना-1' केवल 36 घंटे में चांद के नजदीक पहुंच गया था। अमरीका का 'अपोलो-11 कमांड मॉड्यूल कोलंबिया' भी 3 एस्ट्रोनॉट्स को लेकर 4 दिन से थोड़ा ज्यादा समय में पहुंच गया था।
चीन, अमरीका और सोवियत संघ ने इन अंतरिक्ष यानों के लिए बड़े रॉकेट्स का इस्तेमाल किया था। चीन ने 'चांग झेंग उसी' रॉकेट इस्तेमाल किया था और उसके इस मिशन की लागत थी 1026 करोड़ रुपए।
स्पेसएक्स के फॉल्कन 9 रॉकेट की लॉन्चिंग की कीमत 550 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ रुपए तक होती है जबकि इसरो के रॉकेट की लॉन्चिग कीमत 150 से 450 करोड़ रुपए तक ही होती है।
ईंधन की बचत है दूसरा कारण
स्पेसएक्स के फॉल्कन 9 रॉकेट की लॉन्चिंग की कीमत 550 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ रुपए तक होती है जबकि इसरो के रॉकेट की लॉन्चिग कीमत 150 से 450 करोड़ रुपए तक ही होती है।
ईंधन की बचत है दूसरा कारण
अंतरिक्ष यान में ईंधन की मात्रा सीमित होती है, उसका इस्तेमाल लंबे समय तक करना होता है इसलिए भी उसे सीधे किसी अन्य ग्रह पर नहीं भेजते क्योंकि इसमें सारा ईंधन खत्म हो जाएगा और वह अपना मिशन पूरा नहीं कर पाएगा। इसलिए धरती के चारों तरफ घुमाते हुए कम ईंधन का इस्तेमाल करके यान को आगे बढ़ाया जाता है।
धरती की गति और ग्रैविटी का फायदा उठाता है रॉकेट
रॉकेट को सुदूर अंतरिक्ष में भेजने के लिए जरूरी है कि उसे धरती की गति और ग्रैविटी का लाभ दिया जाए। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जब आप चलती बस या धीमी गति की ट्रेन से उतरते हैं, तो आप उसकी गति की दिशा में उतरते हैं। ऐसा करने पर आपके गिरने की आशंका 50 प्रतिशत कम हो जाती है। इसी तरह अगर आप रॉकेट को सीधे अंतरिक्ष की तरफ भेजेंगे तो आपको धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ज्यादा तेजी से खींचेगी।
धरती की दिशा में उसकी गति के साथ तालमेल बिठाकर उसके चारों तरफ चक्कर लगाने से 'ग्रैविटी पुल' कम हो जाता है और रॉकेट या अंतरिक्ष यान के धरती पर गिरने का खतरा भी कम हो जाता है। धरती अपनी धुरी पर करीब 1600 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से घूमती है। इसका फायदा रॉकेट या अंतरिक्ष यान को मिलता है। वह धरती के चारों तरफ घूमते हुए बार-बार 'ऑर्बिट मैन्यूवरिंग' करता है यानी अपनी कक्षा 4 बदलता है । कक्षाओं को बदलने में समय लगता है, इसलिए 'चंद्रयान 3' को चंद्रमा पर जाने के लिए 42 दिन का समय लग रहा है क्योंकि इसे 5 चक्कर धरती के चारों ओर लगाने हैं।
फिर लंबी दूरी की 'लूनर ट्रांजिट ऑर्बिट' में यात्रा करनी है। इसके बाद वह चंद्रमा के चारों तरफ कक्षाएं बदलेगा । इसरो ने अब तक चंद्रयान- 3 की 4 बार कक्षा बदली है।
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